भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972:
1960 और 1970 के दशकों में पर्यावरण संरक्षकों ने वन्यजीवन की रक्षा के लिए नए कानून की माँग की थी। उनकी माँगों को मानते हुए सरकार ने भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 को लागू किया। इस अधिनियम के तहत संरक्षित प्रजातियों की एक अखिल भारतीय सूची तैयार की गई। बची हुई संकटग्रस्त प्रजातियों के शिकार पर पाबंदी लगा दी गई। वन्यजीवन के व्यापार पर रोक लगाया गया। वन्यजीवन के आवास को कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई। कई राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों ने नेशनल पार्क और वन्यजीवन अभयारण्य बनाए। कुछ खास जानवरों की सुरक्षा के लिए कई प्रोजेक्ट शुरु किये गये, जैसे प्रोजेक्ट टाइगर।
हिमालय
बव (Yew) संकट में
हिमालय बव (चिड की प्रकार सदाबहार वृक्ष) एक औषधीय पौधा है जो हिमाल्य(Himalaya) प्रदेश और अरुणार्चुल प्रदेश
के कुई एरिया(Area) में पाया जाता है। पेड़(Tee) की छाल पत्तियों, और टहनियों और जहां से टैक्सोल(Taxo)
नामक रसायंन निकाला जाता है तथा इसे कुछ कैंसर रोगों के उपचार के
लिए प्रयोग किया जाता है। इससे बनाई गईं दवाई विश्व में सबसे अधिक बिकने वाली कैंसर(Cancer) औषधि है। इसेके अत्युधिक निष्कासन से वनस्पति जाति को खतरा पैदों हो गूया है। पिछले
एक दशक में हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल(Arunachal) प्रदेश में विभिन्न क्षेत्रों में बव(Yew)
के हजारों पेड़ सूख गए हैं।
हमारी पृथ्वी जीवधारियों, सूक्ष्म-जीवाणुओं से लेकर बैक्टीरिया, जोंक से लेकर वटवृक्ष, हाथी और ब्लू व्हेल तक का घर है। भारत, जैव विविधता के सन्दर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है और विश्व की सारी उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है। अनुमानतः भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पतिजात और 20 प्रतिशत स्तनधारियों के लुप्त होने का खतरा है| इनमें से कई उपजातियाँ तो नाजुक अवस्था में हैं और लुप्त होने के कगार पर हैं| इनमें चीता, गुलाबी सिर वाला बत्तख, पहाड़ी कोयल आदि शामिल हैं।
अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (International union for Conservation of nature & natural Resource) के अनुसार विद्दमान वनिस्पति और जीवों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया है-
सामान्य जातियाँ- जातियाँ जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती हैं जैसे- पशु, साल, चीड़ और कृन्तक आदि।
संकटग्रस्त जातियाँ- ऐसी जातियाँ जिनके लुप्त होने का खतरा है, जैसे- काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा आदि।
सुभेद्य जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या घट रही हैं और यदि इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ नहीं बदली जातीं हैं और इनकी संख्या घटती रहती हैं तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगी, जैसे- नीली भेंड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी की डॉल्फिन इत्यादि।
दुर्लभ जातियाँ- इन जातियों की संख्या बहुत कम है और इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं परिवर्तित होती तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।
स्थानिक जातियाँ- इस प्रकार की जातियाँ प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जैसे- अंडमानी टील, निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरूणाचल के मिथुन आदि|
लुप्त जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गयी हैं, जैसे- एशियाई चीता, गुलाबी सिरवाली बत्तख।
रेड डाटा बुक
भारत में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वन एवं वन्य जीव संरक्षण के अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे है।
(A) इन- सिटू संरक्षण (In-situ conservation)- इसके अन्तर्गत जैव-विविधता का संरक्षण उनके मूल आवासों (Original habitats) में ही किया जाता है।
(B) एक्स-सिटू संरक्षण (Ex-situ conservation)- इसके अन्तर्गत जीवों एवं पेड़-पौधों का संरक्षण उनके मूल आवास से दूर ले जाकर किया जाता है। इसके अन्तर्गत पौधों का संरक्षण वानस्पतिक उद्यानों, कृषि अनुसंधान केन्द्रों, के माध्यम से पेड़-पौधों को उनके आवास से दूर स्थापित विभिन्न स्थानों एवं प्रयोगशालाओं में किया जाता है।
वन्य जीव प्राणियों के लिए संरक्षित क्षेत्र
राष्ट्रीय उद्यान
राष्ट्रीय उद्यान को वन्यजीव के संरक्षण के लिए बनाया जाता है। जिसमे कुछ नियम के अंतर्गत इसे चलाया जाता है. इसमें जानवरों को रखा जाता है और इसमें पर्यटकों को आने की अनुमति दी जाती है. ये पूरी तरह से सरकार के द्वारा चलाया जाता है इसमें किसी भी व्यक्ति का कोई पर्सनल भागीदारी नहीं होती है।
वन्य जीव अभ्यारण
अभयारण्य शब्द की उतपत्ति अभय + अरण्य से हुई है जिसमे दो शब्द उपयोग किये गए हैं अभय जिसका मतलब होता है जहां जानवर घूम सके और अरण्य का मतलब वन होता है. तो हम कह सकते हैं कि वन में जानवरों के घूमने का स्थान ही अभयारण्य कहा जाता है. जो कि एक प्रकार का सरकार और अन्य किसी संस्था द्वारा संरक्षित वन, पशु-विहार या पक्षी विहार होता है उसे हम वन्यजीव अभयारण्य कहते हैं. इसे बनाने का मुख्य उद्देश्य जीव-जंतु, पक्षी या फिर वन संपदा को संरक्षित करना होता है.
जैव मण्डल
भारत सरकार ने देश भर में 18 बायोस्फीयर भंडार स्थापित किए हैं। ये बायोस्फीयर भंडार भौगोलिक रूप से जीव जंतुओं के प्राकृतिक भू-भाग की रक्षा करते हैं और अकसर आर्थिक उपयोगों के लिए स्थापित बफर जोनों के साथ एक या ज्यादा राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य को संरक्षित रखने का काम करते हैं। संरक्षण न केवल संरक्षित क्षेत्र के वनस्पतियों और जीवों के लिए दिया जाता है, बल्कि इन क्षेत्रों में रहने वाले मानव समुदायों को भी दिया जाता है।
जैव अपहरण
प्रकृतिजनित तथा करोड़ो वर्षो की विकास की क्रिया में स्थापित अनुवांशिक गुण में फेरबदल को जैव अपहरण कहते हैं।
चिपको आंदोलन: उत्तर प्रदेश के टिहरी - गढ़वाल पर्वतीय में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में अनपढ़ जनजातियों द्वारा 1972 ईस्वी में यह आंदोलन प्रारंभ हुआ था। इस आंदोलन में स्थानीय लोगों ठेकेदारों की कुल्हाड़ी से हरे भरे पौधे को काटते देख, उसे बचाने के लिए अपने आगोश में पौधा को घेरकर इसकी रक्षा करते थे। इसे कई देशों में स्वीकारा गया।
समुदाय और संरक्षण:
इस बात को अब कई स्थानीय समुदायों ने भी मान लिया है कि संरक्षण से उनके जीवनयापन को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसलिए अब कुछ लोग कई जगहों पर सरकार के संरक्षण के प्रयासों के साथ भागीदारी कर रहे हैं।
राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में गाँव के लोगों ने खनन के खिलाफ लड़ाई लड़ी है।
कई गाँव के लोग तो अब वन्यजीवन के आवास की रक्षा करने के क्रम में सरकारी हस्तक्षेप की भी अनदेखी कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण अलवर जिले में देखने को मिलता है। इस जिले के पाँच गाँवों ने 1,200 हेक्टेअर वन को भैरोदेव डाकव ‘सोनचुरी’ घोषित कर दिया है। वहाँ के लोगों ने वन्यजीवन की रक्षा के लिये अपने ही नियम और कानून बनाये हैं।
हिंदू धर्म और कई आदिवासी समुदायों में प्रकृति की पूजा की पुरानी परंपरा रही है। जंगलों में पवित्र पेड़ों के झुरमुट इसी परंपरा की गवाही देते हैं। वनों में ऐसे स्थानों को मानव गतिविधियों से अछूता रखा जाता है।
छोटानागपुर के मुण्डा और संथाल लोग महुआ और कदम्ब की पूजा करते हैं। इसी तरह उड़ीसा और बिहार के आदिवासी शादी के मौके पर इमली और आम की पूजा करते हैं।
बंदरों को हिंदुओं के देवता हनुमान का वंशज माना जाता है। अधिकाँश स्थानों पर इसी मान्यता के कारण बंदरों और लंगूरों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जाता है। राजस्थान के बिश्नोई गाँवों में चिंकारा, नीलगाय और मोर को पूरे समुदाय का संरक्षण मिलता है और कोई उनको नुकसान नहीं पहुँचाता है।
स्थानीय समुदाय द्वारा संरक्षण में भागीदारी का एक और उदाहरण है ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट। यह कार्यक्रम उड़ीसा में 1988 से चल रहा है। इस कार्यक्रम के तहत गाँव के लोग अपनी संस्था का निर्माण करते हैं और संरक्षण संबंधी क्रियाकलापों पर काम करते हैं। उसके बदले में सरकार द्वारा उन्हें कुछ वन संसाधनों के इस्तेमाल का अधिकार मिल जाता है।
प्रोजेक्ट टाइगर
बाघों को विलुप्त होने से बचाने के लिये प्रोजेक्ट टाइगर को 1973 में शुरु किया गया था। बीसवीं सदी की शुरुआत में बाघों की कुल आबादी 55,000 थी जो 1973 में घटकर 1,827 हो गई।
बाघ की आबादी के लिए खतरे: व्यापार के लिए शिकार, सिमटता आवास, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की घटती संख्या, आदि।
प्रोजेक्ट टाइगर
की सफलता |
|
वर्ष |
बाघों की जनसंख्या |
1985 |
4,002 |
1989 |
4,334 |
1993 |
3,600 |
वर्तमान स्थिति |
37,761 वर्ग किमी में फैले 27
टाइगर रिजर्व |
महत्वपूर्ण टाइगर रिजर्व: कॉर्बेट नेशनल पार्क (उत्तराखंड), सुंदरबन नेशनल पार्क (पश्चिम बंगाल), बांधवगढ़ नेशनल पार्क (मध्य प्रदेश), सरिस्का वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी (राजस्थान), मानस टाइगर रिजर्व (असम) और पेरियार टाइगर रिजर्व (केरल)।
जैव विविधता: किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाले जंतुओं और पादपों की विविधता को उस क्षेत्र की जैव विविधता कहते हैं। भारत जैव विविधता के मामले में संपन्न देश है। विश्व में लगभग 16 लाख प्रजातियाँ हैं। इनमें से लगभग 8% प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं।
भारत के
वनस्पतिजात और प्राणिजात |
|
प्राणिजात |
81,000 से अधिक प्रजातियाँ |
वनस्पतिजात |
47,000 से अधिक प्रजातियाँ |
पुष्पी पादपों की
स्थानीय प्रजातियाँ |
15,000 |
पादपजात जिनपर
लुप्त होने का खतरा है |
लगभग 10% |
स्तनधारी जिनपर लुप्त होने का खतरा है |
लगभग 20% |
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