लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी
अध्याय 1 (ख )
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धर्म और सांप्रदायिकता
यह मानना कि धर्म ही समुदाय या समुदाय का गठन करता है, तो यहीं से संप्रदाय को राजनीति से जोड़कर उसे सांप्रदायिकता की संज्ञा दी जाने लगती हैं। लेकिन वास्तविक रूप से संप्रदाय और धर्म का एक भाग है l जैसे वैदिक धर्म अर्थात तथाकथित हिंदू धर्म में 3 संप्रदाय वैष्णव शैव तथा शाक्त संप्रदाय हैं तो इस्लाम में शिया और सुननी, बौद्ध धर्म मैं हीनयान और महायान ईसाइयों में कैथोलिक तथा प्रोस्टेट आदि।
धर्मों के अंदर इसी अंतर पर परस्पर के संघर्ष को संप्रदायिकता कहते हैं लेकिन राजनीतिज्ञों की भाषा में दो धर्मों के बीच टकराव को सांप्रदायिकता का नाम दिया जाता है l यह अवधारणा अत्यंत गलत है जो देश में अस्थिरता पैदा करती है इसे रोकने का प्रयास होना चाहिए।
वास्तव में सांप्रदायिकता राजनीतिक दलों की स्वार्थ परक तथा अपने धर्म को श्रेष्ठ तथा दूसरे धर्म को ही नहीं समझने की भावना का विकास करती है इसका घृणित परिणाम सांप्रदायिक हिंसा है । भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष देश है। जहां राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है यह सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है।
सांप्रदायिकता का सही अर्थ है अपने धर्म को अन्य धर्मों से ऊंचा मानना। अपने धार्मिक हितों के लिए अपने राजनीतिक हितों के लिए राष्ट्रीय हित का बलिदान कर देना भी संप्रदायिकता है संप्रदायिकता धर्म के नाम पर गिरना फैलाती है यह विष के समान है जो मानव को मानव से घृणा करना सिखाता है इस संकुचित मनोवृति के कारण एक धर्म के अनुयाई दूसरे धर्म के अनुयायियों अथवा एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के लोगों के खून के प्यासे हो जाते हैं इस प्रकार संप्रदायवाद एक संकीर्ण विचारधारा है जो एक विशेष समुदाय का अन्य समुदाय के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करने का निर्देश देती है।
राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है जब
1. धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है
2. राजनीतिक में धर्म धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशेष के विशिष्टता के लिए की जाती है
3. राजनीति किसी धर्म विशेष के दावे का पक्ष पोषण करने लगती हैं
4. किसी धर्म विशेष के अनुयाई दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं।
हम यह भी कह सकते हैं की राजनीतिक में धर्म को इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है।
भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा
सांप्रदायिकता भारत की आधारभूत चुनौतियों में से एक है किंतु हमने अपने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को स्थान देकर इसे सिरे से नकारना कर दिया है संवैधानिक उपबंध ों में से निम्नलिखित महत्वपूर्ण है
राष्ट्र में किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित नहीं किया है भारत किसी भी धर्म को विशेष धर्म का दर्जा नहीं देता है।
संविधान भारत के हर नागरिक को यह छूट देता है कि वह किसी भी धर्म को अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार या अंगीकार कर सकता है धर्म के आधार पर किसी को भी उसके कोई अधिकार या अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता कोई भी स्वतंत्रता पूर्वक अपने धर्म का पालन शांतिपूर्ण ढंग से प्रचार प्रसार कर सकता है तथा इस उद्देश्य से शिक्षण संस्थानों को स्थापित कर संचालित कर सकता है।
लैंगिक विभाजन और राजनीति
जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी जानेवाली असमान प्राथमिकताओं से है।
पुरुष और स्त्री के जैविक घर बनावट में लैंगिक विभिन्नता आती है इसका सही तात्पर्य पुरुष और स्त्री में अंतर है यद्यपि भारत में स्थानीय निकायों में स्त्रियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू हो चुकी है किंतु विधायक या सांसद में अपनी सदस्यता की मांग के लिए महिलाओं के संगठन प्रयासरत है और पुरुष प्रधान भारतीय समाज इसे मानने के लिए तैयार नहीं दिखता यद्यपि घर के कामों से लेकर कृषि कार्य तक में महिलाओं की भागीदारी कोई गम नहीं यह अब हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी हैं यहां तक कि अब यह सेना में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं।
भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति
भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़कर 859 तो जरूर हो गई है किंतु यह अभी भी 11% से कम है विकसित राष्ट्रों की भी विधायिकाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या अपर्याप्त है ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत अमेरिका में 16.3% इटली में 16.1% आयरलैंड में 16.2% तथा फ्रांस में 13.9 प्रतिशत है भारत में अधिकांश महिला सांसदों की पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक रही है या कुछ मामलों में आपराधिक भी इस बात को प्रमाणित करती है कि सामान्य महिलाओं के लिए अभी भी विधायिका की दहलीज दूर है।
विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा
सांप्रदायिकता किसी भी धर्म समुदाय को वह अधिकार देती है जिससे वह अपने आप को प्रमुख राजनीतिक में बनाए रखना चाहते हैं कभी-कभी बहुसंख्यक धर्माराम भी धर्मावलंबी एक जुट होकर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने हेतु अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय को मटियामेट कर देने वाली नीतियां बना देते हैं या बनवा देते हैं श्रीलंका में सिंधियों के बहुसंख्यक धर्मवाद ने बहुसंख्यकवाद का रूप लेकर सिंहली भाषा को एकमात्र राज्य भाषा घोषित करवा डालना शिक्षा और नौकरी में सीनियर को प्राथमिकता दिलवा देना बहुत ही धर्म के संरक्षण हेतु कदम उठाना निश्चय ही अल्पसंख्यक को स्वतंत्रता घाट पहुंचाने वाला कदम था
सांप्रदायिकता राजनीति गोलबंदी को पैदा करती है इसके लिए संप्रदाय के गुरुओं मुल्लाओं द्वारा पवित्र प्रतीकों का अनुचित उपयोग धर्म गुरुओं द्वारा भावनात्मक अपील आदि सांप्रदायिकता के अन्य रूप हैं कभी जामा मस्जिद के मौलाना बुखारी द्वारा किसी विशेष राजनीतिक दल संप्रदाय के लोगों को वोट के लिए अपील उनका एक बेहतर उदाहरण है
संप्रदायिकता अपने भयानक रूप में तब राजनीतिक में उभरती है जब वह हिंसा दंगा और नरसंघार को जन्म देती है भारत में अपने विभाजन को भी एक सांप्रदायिकता के आधार पर एक कलंक पूर्ण विभाजन माना है। आजादी के बाद भी कई जगह दंगे हुए गुजरात का गोधरा कांड दिल्ली का सिख दंगा इसके ज्वलंत उदाहरण है।
भारत में किस तरह जातिगत असमानताएं जारी है
भारत के श्रम विभाजन के आधार पर जातिगत असमानताएं जारी है जैसा कि कुछ अन्य देशों में भी है भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा के आधार पर लगभग वंशानुगत ही हैं पैसा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वता चला जाता है इसी पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति का रुप ले लेती है या व्यवस्था जब अस्थाई हो जाती है तब वह श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कल आने लगती है वास्तव में ऐसे ही हम जाति के नाम से जाने लगते हैं खासकर शादी विवाह और अन्य अनिवार्य व्यवस्थाओं में यह स्पष्ट रूप से बिक जाता है इस प्रकार भारत में सदियों से जातिगत असमानताएं जारी है।
अल्पसंख्यक कौन है
चाय भाषा के आधार पर ही हो या संस्कृति के अल्पसंख्यक शब्द को भारतीय संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है देश की कुल जनसंख्या के आधे से भी कम जनसंख्या वाले समुदाय को अल्पसंख्यक कहते हैं इस संदर्भ में 1991 की जनगणना के अनुसार धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय भारत की कुल जनसंख्या का 17.0% है राज्य सरकार अल्पसंख्यकों की इस तरह राज्य स्तर पर क्षेत्रीय या स्थानीय अल्पसंख्यकों की बात भी उठाती है इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की अवधारणा राज्य स्तरीय अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है इसका अर्थ यह है कि यदि कोई समुदाय या वर्ग किसी अन्य विशेष में कुल मिलाकर बहुमत में हो तो वह भी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक हो सकते हैं तथा इसके विपरीत स्थिति भी हो सकती है।
भारत की राजनीतिक पर लैंगिक धार्मिक संप्रदाय तथा जातीय विभेद के प्रभावों का वर्णन करें
लैंगिक विभेद का अर्थ है समाज का लिंग महिला तथा पुरुष के आधार पर बंटवारा समाज में लगभग 48% स्त्रियां हैं प्रारंभ में उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे परंतु धीरे-धीरे उनकी दशा खराब होती चली गई लैंगिक विभेद के कारण आज विश्व भर में राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कम है अमेरिका में 20.2% यूरोप में 96.6 तथा एशिया के देशों का औसत मात्र 11.7 प्रतिशत है भारत में लोकसभा में सिर्फ 11% राज्यसभा में 9 पॉइंट 3% महिलाएं हैं भारत के राज्य विधानमंडलों में तो यह 4% ही हैं भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का वादा किया है परंतु यह विधेयक अभी संसद में लंबित है l
धार्मिक एवं सांप्रदायिक प्रभाव आधुनिक युग में धर्म और राजनीति का गहरा संबंध है धर्म के आड़ में राजनीति का घिनौना खेल खेला जा रहा है कुछ राजनीतिक दलों का गठन भी किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है धार्मिक आवंटन नहीं संप्रदायवाद का रूप ले लिया है सांप्रदायिकता के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था।
जातीय विभेद का प्रभाव राजनीतिक में जाति का प्रभाव निम्नलिखित रुप से देखने को मिलता .
1. राजनीतिक दल अपने अपने जाति आधारित बोर्ड बैंकों का ध्यान रखते हुए उम्मीदवारों का चयन करते हैं।
2. सरकार बनाते समय भी सत्तारूढ़ दल अपने प्रांतीय राष्ट्र के जाति आधारित प्रतिनिधित्व का पूरा ख्याल रखते हैं
3. राजनीतिक में जाति का प्रभाव के कारण ही पिछड़ी जाति के लोगों की राजनीति में रुचि बढ़ती जा रही है या उनका मानना है कि बिना सत्ता हासिल किए हुए उनका कल्याण संभव नहीं है।
4. राजनीतिक दल भी चुनावों के समय जाति आधारित भावनाओं को उकसाने का प्रयास करते हैं।
भ्रूण हत्या से आप क्या समझते हैं?
वर्तमान में अत्याधुनिक उपकरणों से गर्भ में ही शिशु के लिंग की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है और पुत्री के जन्म होने की जानकारी होने पर गर्भ में ही उसकी हत्या कर दी जाती है इसे ही भ्रूण हत्या करते हैं।
महिलाओं के सशक्तिकरण से आप क्या समझते हैं?
महिलाएं आज राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी पिछड़ी हुई है नारियों के विकास के बिना समाज के विकास की बात करना असंभव है अतः महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागृत होना महिला सशक्तिकरण है।
नोट:- सभी विद्यार्थियों से आग्रह है की इस क्लास नोट्स को अत्यंत ध्यानपूर्वक पढ़े। बहुत संभव है कि शब्दों में त्रुटी हो, हालाकि नोट्स को लिखते वक़्त हर संभव त्रुटि रहित रखने का प्रयास किया गया है। धन्यवाद्
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