
सत्ता की साझेदारी
अध्याय 1 (खंड क )
सत्ता की साझेदारी एक ऐसा कुशल राजनीतिक पद्धति है जिसके द्वारा समाज के सभी वर्गों को देश की शासन प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाता है वही प्रक्रिया सत्ता की साझेदारी कहलाती है।
लोकतंत्र में विविधता स्वाभाविक है इस कारण देश में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका मिलकर देश की शासन व्यवस्था चलाते हैं बिना किसी संवैधानिक गतिरोध को पैदा किए हुए। केवल यही नहीं केंद्रीय प्रांतीय स्थानीय सरकार को भी सत्ता के साझेदारी के नियम पर चलना पड़ता है अन्यथा लोकतांत्रिक सिद्धांतों को ठेस पहुंचती है।
✔ जिस देश में क्षेत्रीय भाषा और जाति आधार पर विभाजन हो वहा सत्ता के साझेदारी का महत्व और बढ़ जाता है
✔ सामाजिक टकराव अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए भी सता में साझेदारी करना राजनीतिक व्यवस्था के लिए अच्छा होता है।
✔ लोकतंत्र का अर्थ ही यही है जो लोग इस शासन व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बांटा जाए और इसलिए वैध सरकार वही है जिनमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं। लोकतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्तियों का सोत है इसमें लोग स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं।
✔शासन के विभिन्न अंग हैं जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच में सता का बंटवारा रहता है।
✔ सरकार के बीच भी विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बंटवारा । केंद्र सरकार और राज्य सरकार और सता बटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच।
कुछ जानने योग्य बातें
जातीय विभाजन
ऐसा सामाजिक विभाजन जिसमें प्रत्येक समूह अपनी अपनी संस्कृति को पृथक मानता है यानी यह साझी संस्कृति आधारित सामाजिक है किसी जातीय समूह के सभी सदस्य न की उत्पत्ति समान पूर्वजों से हुई है और इसी वजह से उनकी शारीरिक बनावट और संस्कृति एक जैसी है आवश्यक नहीं है कि ऐसे समूह के सदस्य किसी एक धर्म के मानने वाले हो या उसकी राष्ट्रीयता एक ही हो लेकिन बहुत संभव है, वह एक ही परिवार से संबंध रखता हो।

लोकतंत्र में वंदवाद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोग ही शासन का केंद्र बिंदु होते हैं । लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवम लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है। शासन में लोकप्रतिनिधी लोगों के हित तथा उनके इच्छा को सर्वोपरि मानकर अपना कार्य करते हैं यही कारण है कि शासन के लोकतांत्रिक व्यवहार समाज में उभरते वंद से प्रभावित होते हैं।
उदाहरण के तौर पर हम बेल्जियम के समाज की जातीय बनावट को देख सकते हैं बेल्जियम यूरोप का एक छोटा सा देश है जिसकी आबादी हरियाणा से भी अधिक है परंतु इसके समाज की जातीय बनावट अत्यंत जटिल है इस में रहने वालेन 59 प्रतिशत लोग डच भाषा बोलते हैं जबकि 40% लोग फ्रेंच बोलते हैं बाकी 1% लोग जर्मन बोलते हैं ऐसे भाषा एक विविधताओं कई बार सांस्कृतिक और राजनीतिक झगड़े का कारण बन जाती है परंतु जिन के लोगों ने एक नवीन प्रकार की शासन पद्धति अपनाकर सांस्कृतिक विविधता एवं क्षेत्रीय अंतरों से होने वाले आपसी मतभेट को दूर कर लिया उन्हें बार-बार संविधान में संशोधन कर संशोधन कार कुछ इस तरह से कानून बनाया गया जिसके अंतर्गत सभी मिलजुल कर के रह सके।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन के रूप लोकतंत्र में वववाद का भी सर्वोपरि कारक सामाजिक विभाजन ही है क्षेत्रीय विभाजन भी सामाजिक भेदभाव का कारण है मुंबई में इसका घिनौना रूप हम सब ने देखा है और देख रहे हैं लेकिन इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में काफी अंतर है वास्तव में सामाजिक विभाजन लब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं।
सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पति
सामाजिक विभेद का सबसे मुख्य कारण जन्म को माना जाता है किसी भी व्यक्ति का जन्म किसी परिवार विशेष में होता है उस परिवार का संबंध किसी ना किसी जाति समुदाय धर्म भाषा क्षेत्र से अवश्य होता है स्वभाविक है कि व्यक्ति विशेष का संबंध भी उसी जाति समुदाय धर्म भाषा क्षेत्र से हो जाता है इस प्रकार जाति समुदाय धर्म भाषा क्षेत्र के नाम पर सामाजिक विभेद की उत्पति हो जाती है।
इन तथ्यों के अतिरिक्त भी अनेक सामाजिक विभेद उत्पन्न हो जाते हैं जिनका संबंध जन्म से कोई लेना देना नहीं होता कुछ व्यक्तिगत विभिन्न भी सामाजिक विद्युत उत्पन्न करने में सहायक हो जाते हैं लिंग रंग नस्ल दान आदि का भी विभेद लोगों में पाया जाता है और कालांतर में वे सामाजिक विभेद का रूप धारण कर लेते हैं स्त्री-पुरुष काले-गोरे लंबे-नाटे अमीर-गरीब शक्तिशाली और कमजोर के विभेद सामाजिक विभेद में ही परिवर्तन हो जाते हैं।
सामाजिक विभाजन एवं सामाजिक विभिन्नता में क्या अंतर है।
सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में अंतर यह है कि सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विविधताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं दलितों और सवर्णों का अंतर अमीरों और गरीबों का अंतर वंचित और सुविधा प्राप्त लोगों का अंतर, सामाजिक विभाजन का रूप ले लेता है जब यह विभाजन स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होने लगते हैं तो इसे सामाजिक विभिन्नता कहते है।
प्रश्न- हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती' कैसे?
यह कथन शत प्रतिशत सही है कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप ग्रहण नहीं कर सकती। कभी- कभी विभिन्न समुदायों के विचार विभिन्न हो जाते हैं लेकिन उनका हित समान होता है, यह सामान हित ही है कि सामुदायिक विभिन्नता के बावजूद उन्हें एकता के भाव बने रहते हैं यह रोजमर्रा की बात हो गई है कि विभिन्न संपन्न राज्य में बिहारियों को अनेक तरह से सताया जाता है यहां बिहारी के रूप में सताए जाने वाले लोग एक समुदाय के समझे जाते हैं वैसे वास्तव में एक समुदाय के ना होकर अनेक समुदाय के होते हैं यहां समुदायों से तात्पर्य जातियों से है लेकिन बिहार में किसी अन्य राज्य में सताए जाने के कारण बिहारी होने के नातै एकता बन जाती है जो समुदाय का रुप ले लेती है अतः स्पष्ट है कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती।
सामाजिक विभेदों में तालमेल और संघर्ष पर प्रकाश डालें
लोकतंत्र में विविधता स्वभाविक है अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को अपनाया जाता है उनमें यह धारणा विकसित हो जाती है कि उनके धर्म अलग-अलग अवश्य है परंतु उनका राष्ट्र एक ही है एक ही सामाजिक समानता है कई समूहों में मौजूद हो तो फिर एक समूह के लोगों के लिए दूसरे समूह में अलग पहचान बनाना मुश्किल हो जाता है विभिन्न नेताओं के बावजूद लोगों में सामंजस्य का भाव पैदा होता है उत्तरी आयरलैंड और नीदरलैंड दोनों ही ईसाई बहुलता वाले देश हैं। उत्तरी आयरलैंड में वर्ग और धर्म के बीच गहरी समानता है। सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विविधताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर एक सामाजिक विभाजन बन जाता है क्योंकि अश्वेत लोग आमतौर पर गरीब है बेघर है और भेदभाव के शिकार हैं हमारे देश में भी दलित आमतौर पर गरीब और भूमिहीन हैं उन्हें भी अक्सर भेदभाव और अन्याय का शिकार होना पड़ता है विभिन्न नेताओं में टकराव की स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए लाभदायक नहीं हो सकती।
जाति का राजनीति पर प्रभाव
वर्तमान समय की राजनीति की दिशा सामाजिक न्याय के आवरण तले निर्धारित होने लगा है भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर जब हम दृष्टिपात करेंगे तो ऐसे अवधारणाओं को हम जरूर रूबरू हो सकेंगे रूबरू हो सकेंगे 1970 के दशक तक 1967 की राजनीति पर सवर्ण जातियों का दबदबा था विधानमंडल और संसद के लिए आरक्षित स्थानों पर ही टिकट जाति विशेष के अपने चहेते को ही देते थे। आरक्षण के तहत प्राप्त सुविधा प्राप्त नेताओं का रहन सहन उनका शिक्षा दीक्षा अन्य लोगों से काफी विकसित हो गई और वे स्वर्ण जाती में आ गए। इनका एक अलग समाज बन गया। 70 के दशक 90 के दशक के बीच इस स्थिति बदलने का संगर्ष चलता रहा। 90 के दशक के बाद पिछड़ी जातियों का का वर्चस्व कायम हो गया।
जातीय विविधता भी राजनीतिक से गहरा संबंध स्थापित हो चुका है स्वर्गीय बाबू जगजीवन राम का कहना है कि "एक आदमी अपना सब कुछ छोड़ सकता है परंतु वह जाति व्यवस्था में अपने विश्वास को तिलांजलि नहीं दे सकता"। जातिविहीन राजनीति की कल्पना वास्तविकता पर पर्दा डालने के समान है राजनीतिक में जातीय विभेद की इतनी गहरी पैठ हो चुका है की बेटी और वोट अपने ही जाति को दो का प्रचलन हो गया है राजनीति को जाती अनेक रूप से प्रभावित कर रही है उदाहरण के तौर पर-
1. विभिन्न राजनीतिक दलों दद्वारा जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन
2. सरकार में विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व
3. जातीय भावनाओं को उकसाने में राजनीतिक दलों की सक्रियता
4. कमजोर जाति के लोगों की राजनीतिक में बढ़ती अभिरुचि
निर्वाचन में जातीयता का प्रभाव कम होने की प्रवृति
हाल के वर्षा में जातीयता में कुछ खास के लक्षण दिखाई दिए हैं परंतु पूरी तरह से वह समाप्त नहीं हुआ है हलाकि चुनाव में जातीय विभेद की ही भूमिका सर्वोपरि है कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि किसी विशेष जाति बहुल वाले निर्वाचन क्षेत्र में अधिकांश राजनीतिक दल उसी जाति के उम्मीदवार को खड़ा कर देते हैं परिणाम स्वरुप दो मुख्य विकल्प सामने आ जाते हैं राहुल जाति के मतदाता किसी विशेष राजनीतिक दल के उम्मीदवार को सफल बनाने के लिए एकजुट हो जाते हैं यदि ऐसा नहीं हो सका तो बहुल जाति के अधिकांश मतदाता दूसरी जाति के मतदाताओं से एक नया समीकरण बनाकर बाजी मार लेते हैं ऐसी अवस्था में कई उम्मीदवारों को अपनी जाति विशेष के वोट बैंक पर नजर रखने पर भी मुंह की खानी पड़ती है स्पष्ट है कि जातिवाद की राजनीति में एकमात्र महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते बल्कि अन्य कारक भी सक्रिय नजर आते हैं जैसे गरीबी और अमीरी का विवेचन शोषित और शोषक का विभेद आदि सामाजिक विभाजन के निर्धारक तत्व है l
सामाजिक विभाजन के तीन निर्धारक तत्व हैं जो निम्नलिखित है
i राष्ट्रीय चेतना.
i. क्षेत्रीय भावना.
lii. सरकार का रूप
राष्ट्रीय चेतना व्यक्ति को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए राष्ट्रीयता आवश्यक होती है कभी-कभी राष्ट्रीयता
परिवर्तित होकर उप राष्ट्रीयता भी पनपने लगती है यही सामाजिक विभाजन का कारण बनती है क्षेत्रीय भावना सभी लोगों में कुछ ना कुछ क्षेत्रीय भावना तो होती ही है लेकिन जब यह चरम अवस्था पर पहुंच जाती है तो नुकसानदेह भी हो जाती है उदाहरण के लिए मुंबई और ऐसे ही शहरां में हो रहे बिहारियों के साथ दुर्व्यवहार।सरकार का रूप सामाजिक विभाजन सरकार के रूप और उसके व्यवहार के कारणों पर ही निर्भर करता है। समाज के लोगों की मांगों पर सरकार की क्या प्रक्रिया हो रही है या सरकार के क्रियाकलापों पर आकाश समाज के लोगों पर क्या प्रतिक्रिया होती है इन बातों पर भी समाज का विभाजन निर्भर करता है। वैदिक काल में भारतीय समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र । यह केवल काम-धाम को व्यवस्थित ढंग से संपादन के लिए किया गया था। एक ही घर में चार वर्गों के लोग रहते थे ।खाना-पीना साथ-साथ होता था । परस्पर कोई भेदभाव नहीं रह ता था। इसे जन्मना वर्ण व्यवस्था कहते थे । कार्यक्रम में यह जन्माना वर्ण व्यवस्था कर्मणा वर्ण व्यवस्था में बदल गई। अब तो व्यक्ति जो काम करता था उसके वंशज भी वही काम करने के लिए विवश हो गए। अब वर्ग को जाति कहा जाने लगा । अब जो जिस जाति का रहता था उसका शादी विवाह उसी जाति में होने लगा आगे चलकर जाती में भी उपजाति तथा उपजातियां होने लगी। भारत में जातीय जातीयता का उद्भत इसी प्रकार हुआ और कालांतर में जातिवाद की बेड़ियों ने समाज को इस कदर जकड़ कर रखा है कि अगर एक समुदाय का बेटा या बेटी किसी दूसरे समुदाय के बेटा या बेटी से शादी कर लेते हैं तो उसका काम तमाम कर देते है l अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित भी कर दिया जाता हैं।
✔ जाति के अंदर राजनीति अर्थात जाति को राजनीति भी प्रभावित करते हैं राजनीति और जाति के बीच एकपक्षीय संबंध है राजनीति भी जाति को प्रभावित करता है और राजनीति जाति भावना को उभारता है जाति विशेष समुदाय को साथ लेने की कोशिश करता है जो कभी उससे अलग था।
कभी-कभी राजनीति का यह भी कोशिश रहता है कि करीब-करीब सामान्य स्थिति वाले कई जातीय समुदायों को जोड़कर गठबंधन बनाया जाए और राजनीतिक सत्ता हासिल किया जाए।
धर्म और साम्प्रदायिकता......आगे का नोट्स अगले अंक में जारी किया जाएगा l
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