कृषि
Agriculture
भूमिका- वर्तमान समय में भारत कृषि के दृष्टिकोण से एक संपन्न राष्ट्र है। जिस में भारत के लगभग 60% लोग कृषि कार्यों में संलग्न है। यहां विस्तृत समतल भूमि , संपन्न मृदा, अनेक प्रकार के फसलों के लिए उपयुक्त खुली धूप तथा लंबा वर्धन काल से युक्त विविध जलवायविक दशाएं पाई जाती हैं ।हिमालय से निकलने वाली सतत् वाहिनी नदियों में ग्लेशियर के पिघलने से वर्षभर पर्याप्त जल रहता है। इस कारण भारत की कृषि संपदा को प्रकृति का अनूठा उपहार मिला है।
वहीं दूसरी तरफ, भारत में 85% से अधिक कृषि वर्षा पर निर्भर है और भारतीय मानसून के स्वभाव के कारण कृषि निर्धारण में वर्षा का बहुत महत्व है। अधिकांश भागों में वर्षा वर्ष में तीन चार महीने ही होती है और वह भी असामान तथा और अनियमित । इस कारण अधिकांश क्षेत्र में साल में एक ही फसलें उगाई जाती है ।जल की कमी के कारण भारत के अधिकांश क्षेत्रों में शुष्क खेती का प्रचलन है।वर्षा की सहायता से विकसित कृषि प्रणाली को शुष्क कृषि (Dry agriculture)कहते हैं।
कृषि किसे कहते हैं?
कृषि का अर्थ है फसल उत्पन्न करने की प्रक्रिया; फसल उत्पादन, पशुपालन आदि की कला, विज्ञानं और तकनीक को कृषि कहते हैं। भूमि के उपयोग द्वारा फसल उत्पादन करने की क्रिया और प्रक्रिया को कृषि कहते हैं। कृषि एक प्राथमिक कार्य है जिसका मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ती करना है।
भारतीय कृषि की विशेषताएं (महत्व)
भारतीय कृषि की पांच प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. भारतीय कृषि आर्थिक जीवन का प्लान है भारत में लगभग दो-तिहाई लोग की जीविका कृषि पर आधारित है
2. भारत के विशाल जनसंख्या के लिए भोजन कृषि से ही प्राप्त होता है।
3. यहां की कृषि से कच्चे माल उद्योगों को प्राप्त होते हैं।जैसे कपास सूती वस्त्र उद्योग चीनी गन्ना उद्योग झूठ झूठ उद्योग एवं अन्य कृषि उत्पाद कृषि प्रसंस्करण उद्योग को कच्चा माल देते हैं। जैसी रसदार फल जेली जैन स्वतंत्र उत्पादन के लिए आधार प्रदान करते हैं। इस तरह की कृषि उद्योगों की मजबूती प्रदान करती है।
4. यहां की जलवायु मिट्टी एवं धरातल की विविधता के कारण भारत में फसलों की विविधता भी पाई जाती है। चाय, गन्ना,मोटे अनाज एवं कुछ तिलहनों के उत्पादन का विश्व में अग्रणी स्थान है ।
5. राष्ट्रीय में भारतीय कृषि का मुख्य योगदान है देश की 18% आय कृषि से प्राप्त होती है।
भारत में कृषि भूमि उपयोग
कृषि पर आश्रित लोगों के लिए भूमि अत्यंत ही महत्वपूर्ण संसाधन है क्योंकि यह पूरी तरह भूमि पर निर्भर है। इसलिए ग्रामों में भूमि हीनता और गरीबी के बीच संबंध देखने को मिलता है।फसलों के उत्पादन में भूमि की गुणवत्ता का भी व्यापक महत्व होता है, जबकि अन्य आर्थिक क्रियाकलाप जैसे कि उद्योग, परिवहन,आवास में इसका उतना महत्व नहीं है।
स्थाई संपत्ति होने के कारण भूमि का सामाजिक महत्व भी है। इसे सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। कर्ज के लिए इसे गिरवी रखा जा सकता है। भूमि ही इन सब लाभों से वंचित रह जाते हैं।
कृषि योग्य भूमि में 4 तरह की भूमि सम्मिलित की जाती हैं-
a.शुद्ध बोया गया क्षेत्र
b.चालू परती भूमि
c.अन्य परती
d.कृषि योग्य भूमि
भूमि उपयोग में परिवर्तन निम्न दो कारणों के चलते हुआ है-
1. जनसंख्या में वृद्धि- देश की जनसंख्या में वृद्धि स्वभाविक है और बढ़ती जनसंख्या के लिए निवास और बस्तियों के निर्माण में पर्याप्त भूमि का उपयोग किया जाता है।
2.उद्योगों का विकास- उद्योगों के विकास में उनकी स्थापना तथा परिवहन के लिए सड़क रेल मार्ग बनाने तथा औद्योगिक बस्तियों के निर्माण में काफी मात्रा में कृषि भूमि का उपयोग किया जाता है।
शस्य गहनता
एक ही कृषि वर्ष में एक ही भूमि पर एक से अधिक फसलों को उठाकर कुल उत्पादन में वृद्धि करना ही शस्य गहनता कहलाता है।
उदाहरण द्वारा इसे समझा जा सकता है-कि यदि आपके पास 3 हेक्टेयर भूमि है।1 वर्ष में धान की फसल बो कर धान उपजाते हैं । उसके बाद रबी के समय उसी 3 हेक्टेयर में गेहूं बो कर गेहूं का उत्पादन करते हैं। फिर जायद के समय कम अवधि में तैयार होने वाली मूंग की फसल बो कर उसकी कटाई कर लेते हैं। 1 वर्ष में तीन बार फसलों का उत्पादन होने से भूमि का 3×3=9 हेक्टेयर उत्पादक जमीन में परिवर्तित हो गया।
शस्य गहनता को प्रभावित करने वाले कारक
-सिंचाई , उर्वरक , उन्नत बीज , यंत्रीकरण, कीटनाशक
कृषि उत्पादन का उचित मूल्य
भारत में शुद्ध बोए गए क्षेत्र के बढ़ने की संभावना बहुत ही कम है। लेकिन सबसे घंटा ही वह विकल्प है जिससे भारत में कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
भारत के अधिकांश भागों उष्णकटिबंधीय जलवायु होने के कारण यहां पर यहां पर तापमान और प्रकाश रहता है। वर्षा का वितरण सभी जगह समान नहीं है रहने के कारण आद्रता कृषि के प्रकार और फसलों के प्रकार तथा उत्पादन निर्धारण करने वाली महत्वपूर्ण कारक हो जाता है। जब फसल केवल बरसा द्वारा प्राप्त नमी के आधार पर पैदा की जाती है तब इसे वर्षा पोषित कृषि या वर्षातील कृषि करते हैं यह कृषि दो प्रकार की होती है- शुष्क भूमि कृषि एवं आद्र भूमि कृषि।
आंद्रा भूमि कृषि- 75 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में होने वाले कृषि को आद्र भूमि कृषि कहते हैं।
शुष्क भूमि कृषि-75 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले क्षेत्र में होने वाले कृषि को शुष्क भूमि कृषि करते हैं।
भारतीय कृषि कुल लगभग 35% भूमि पर वर्षा दिन कृषि होती है मोटे अनाज दाल तिलहन कपास वर्षा अधीन फसलों के उदाहरण हैं।
शुष्क भूमि कृषि की विशेषताएं-
1.वर्षा जल को संरक्षित करने की विधियों का प्रयोग किया जाता है ताकि शुष्क समय में इसका उपयोग किया जा सके।
2.आवश्यकता से अधिक जल को भूमिगत जल के पुनर्भरण के लिए संरक्षित रखा जाता है।
3. शुष्क होने कारण यहां की मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा बहुत कम होती है।
4.शुष्क होने के कारण मिट्टी की ऊपरी परत का वायु द्वारा कटाव होता है।
5.शुष्क भूमि कृषि अधिकांश था गरीब किसान करते हैं जिनके पास उन्नत कृषि करने के लिए पूंजी एवं आवश्यक साधन का अभाव होता है।
6.कृषि द्वारा यहां आए कम प्राप्त होता है जिसकी क्षतिपूर्ति पशुपालन द्वारा की जाती है । अब जनसंख्या वृद्धि के दबाव के कारण यहां के चारागाहो को खेतों में बदला जा रहा है l
गरीब किसान उत्थान के लिए सरकार द्वारा बनाई गई योजना
1.समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, सूखा प्रवण क्षेत्र विकास कार्यक्रम, रोजगार के बदले अनाज कार्यक्रम ,नरेगा आदि
2.शीघ्र तैयार होने वाली फसलों का बीज तैयार किया जा रहा है।
3.कृषि की नई तकनीक का विकास।
4.जल छीजन एवं संग्रहण के पत्नी का प्रचार प्रसार।
5.पशुपालन एवं मुर्गी पालन के कृषि के पूरे अंग के रूप में विकसित किया जा रहा है।
6.कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योगों को विकसित किया जा रहा है।
7.अर्ध शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के लिए अंतरराष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (हैदराबाद) तथा केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (जोधपुर) शुष्क भूमि एवं अन्य कृषि से संबंधित समस्याओं के निदान के लिए कार्यरत हैं।
कृषि के प्रकार
विश्व में कृषि विभिन्न तरीकों से की जाती है भौगोलिक दशाओं, उत्पाद की मांग, श्रम और प्रौद्योगिकी के स्तर के आधार पर कृषि दो मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत की जा सकती है ये हैं निर्वाह कृषि और बाणिज्यिक कृषि ।
निर्वाह कृषि
इस प्रकार की कृषि कृषक परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की जाती है। पारंपरिक रूप से कम उपज प्राप्त करने के लिए निम्न स्तरीय प्रौद्योगिकी और पारिवारिक श्रम का उपयोग किया जाता है। निर्वाह कृषि को पुनः गहन निर्वाह कृषि और आदिम निर्वाह कृषि में वर्गीकृत किया जा सकता है।
गहन निर्वाह कृषि में किसान एक छोटे भूखंड पर साधारण औज्ञारों और अधिक श्रम से खेती करता है। अधिक धूप वाले दिनों से युक्त जलवायु और उर्वर मृदा वाले खेत में, एक वर्ष में एक से अधिक फ़सलें उगाई जा सकती हैं। चावल मुख्य फ़सल होती है। अन्य फ़सलों में गेहूँ, मक्का, दलहन और तिलहन शामिल हैं। गहन निर्वाह कृषि दक्षिणी, दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया के सघन जनसंख्या वाले मानसूनी प्रदेशों में प्रचलित है।
में स्थानांतरी कृषि और चलवासी पशुचारण शामिल हैं।
आदिम निर्वाह कृषि अमेजन बेसिन के सघन वन क्षेत्रों, उष्ण कटिबंधीय अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और उत्तरी-पूर्वी भारत के भागों में प्रचलित है। ये भारी वर्षा और वनस्पति के तीव्र पुनर्जनन वाले क्षेत्र हैं। वृथों को काटकर और जलाकर भूखंड को साफ़ किया जाता है। तब राख को मुदा में मिलाया जाता है तथा मक्का, रतालू, आलू और कसावा जैसी फ़सलों को उगाया जाता है। भूमि की उर्वरता की समाप्ति के बाद वह भूमि छोड दी जाती है और कृषक नए भूखंड पर चला जाता है। स्थानांतरी कृषि को *कर्तन एवं दहन' कृषि के रूप में भी जाना जाता है।
चलवासी पशुचारण- साहारा के अर्धशुष्क और शुष्क प्रदेशों में, मध्य एशिया और भारत के कुछ भागों जैसे राजस्थान तथा जम्मू और कश्मीर में प्रचलित है। इस प्रकार की कृषि में पशुचारक अपने पशुओं के साथ चारे और पानी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर निश्चित मागों से घूमते हैं। इस प्रकार की गतिविधि जलवायविक बाधाओं और भूभाग की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न होती है। पशुचारक मुख्यतः भेड़, ऊँट, मवेशी, याक और बकरियाँ पालते हैं। ये पशुचारकों और उनके परिवारों के लिए दूध, मांस, ऊन खाल और अन्य उत्पाद उपलब्ध कराते हैं।
वाणिज्यिक कृषि
वाणिज्यिक कृषि में फ़सल उत्पादन और पशुपालन बाजार में विक्रय हेतु किया जाता है। इसमें विस्तृत कृष्ट क्षेत्र और अधिक पूँजी का उपयोग किया जाता है। अधिकांश कार्य मशीनों के द्वारा किया जाता है। वाणिज्यिक कृषि में वाणिज्यिक अनाज कृषि, मिश्रित कृषि और रोपण कृषि शामिल हैं l
वाणिज्यिक अनाज कृषि में फ़सलें वाणिज्यिक उद्देश्य से उगाई जाती हैं। गेहूँ और मक्का सामान्य रूप से उगाई जाने वाली फ़सलें हैं। उत्तर अमेरिका, यूरोप और एशिया के शीतोष्ण घास के मैदान वाणिज्यिक अनाज कृषि के प्रमुख क्षेत्र हैं। ये क्षेत्र सैकड़ों हेक्टेयर के बड़े फार्मों से युक्त बिरल आबादी वाले हैं। अत्यधिक ठंड वर्धनकाल को बाधित करती है और केवल एक ही फ़सल उगाई जा सकती है।
मिश्रित कृषि में भूमि का उपयोग भोजन व चारे की फ़सलें उगाने और पशुधन पालन के लिए किया जाता है यह यूरोप पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका, अर्जेंटीना, दक्षिण-पूर्वी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका में प्रचलित है।
रोपण कृषि : रोपण कृषि एक विशेष प्रकार की झाड़ी कृषि अथवा वृक्ष कृषि है। इसे 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने प्रारंभ किया था। यह एकल फसल कृषि है। इसमें रबर, चाय, कहवा, कोको, मसाले, नारियल और फलों की फसलें जैसे- सेब, को अंगूर, संतरा, आदि उगाई जाती हैं। इस प्रकार की कृषि में अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है। इसके लिए कुशल प्रबंध, तकनीकी ज्ञान, मशीनों, उर्वरकों, सिंचाई और परिवहन सुविधाओं का होना आवश्यक है। कई रोपण कृषि क्षेत्रों जैसे चाय, कहवा और रबर बागानों या उनके निकट ही उन्हें संसाधित करने की फैक्टरी लगी होती हैं। इस प्रकार की कृषि उत्तर-पूर्वी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों, पश्चिम - बंगाल के उप-हिमालयी क्षेत्रों, तथा प्रायद्वीपीय भारत की नीलगिरि, की अनामलाई व इलायची की पहाड़ियों में की जाती है।
शस्य प्रारूप
भारत में कृषि की तीन प्रमुख ऋतुएँ हैं जिनमें ये फसलें उगाई जाती हैं
(i) खरीफ-मॉनसूनपूर्व की ऋतु, जिसमें खेत जोतकर धान की रोपाई के लिए खेतों में बीज डाल दिए जाते हैं और वर्षा की प्रतीक्षा की जाती है। वर्षा शुरू होते ही कृषिकार्य जोर पकड़ने लगता है। जून-जुलाई में फसलों की खेती आरंभ होती है और मॉनसूनी वर्षा की समाप्ति तक फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। धान, ज्वार-बाजरा, मकई, मूँगफली, जूट, कपास और अरहर (इस दलहन को पकने में अधिक समय लगता है) की फसलों की खेती इसी ऋतु में की जाती है। ये खरीफ फसलें कहलाती हैं।
(ii) रबी -वर्षाऋतु के बाद और जाड़ा आरंभ होने पर जिन फसलों की खेती की जाती है, वे रबी फसलें कहलाती हैं, जैसे-गेहूँ, चना, मटर, सरसों आदि। यह ऋतु रबी की ऋतु कहलाती है, जिसमें नवंबर में बुआई और अप्रैल-मई में इन फसलों की कटाई की जाती है।
(iii) जायद-कुछ फसलें सिंचाई के बल पर अल्प अवधि में ही पैदा की जाती हैं, जैसे-मूंग और उड़द। भारत में विभिन्न ऋतुओं में फल और सब्जियों की भी खेती की जाती है। मार्च से जून तक की अल्पावधि में भी सिंचाई सुविधा के क्षेत्रों में कुछ फसलें उगाई जाती हैं, परंतु मुख्यतः सब्जियाँ और कुछ ग्रीष्मकालीन फल- नाशपाती, खरबूजा, तरबूज इत्यादि की खेती प्रमुख रूप से होती है। इस फसल ऋतु को जायद (zaid) कहते हैं।
भारत के कुछ भागों में इस प्रकार की फसल ऋतुएँ नहीं हैं। जलवायु, मिट्टी इत्यादि की स्थानीय स्थिति के अनुसार, फसलों का उत्पादन किया जाता है, जैसे तमिलनाडु में धान की फसल तब बोई जाती है जब उत्तर भारत में उसकी कटाई हो रही होती है।
हरित क्रांति क्या है?
उत्तर-1967-68 में कृषि उत्पादन बढ़ाने और देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई प्रयास किए गए l जिसके अन्तर्गत जोत भूमि का विस्तार, नए संकर बीजों का प्रयोग, उर्वरकों के उपयोग को प्रोत्साहन, मृदा संरक्षण एवं भूमि सुधार का कार्यक्रम चलाया गया, सिंचाई का विस्तार और कृषि में नई तकनीकों को अपनाया गया। इस प्रयास में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में गेहूँ एवं धान के उत्पादन में जो वृद्धि हुई, जो सफलता मिली इसे ही हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार के प्रयास और तकनीक का प्रयोग कर पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी गेहूँ और चावल के उत्पादन में वृद्धि की गयी l
भारत में पशुओं के प्रारूप की प्रमुख विशेषता यह है कि यहां एक 100 सेंटीमीटर की सम वर्षा रेखा हैl देश को दो बड़े कृषि क्षेत्र में बांटती है। 100cm से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में चावल जबकि 100 cm से कम वर्षा वाला क्षेत्र में गेहूं प्रमुख फसल है।
इन दो प्रमुख कृषि क्षेत्र के बीच एक क्षेत्र संक्रमण का क्षेत्र है।भारत में शुष्क क्षेत्र का एक विशिष्ट फसल प्रारूप है। यहां प्रमुख फसल ज्वार बाजरा मूंगफली तिलहन और दाल है।
मुख्य फसलें- भारत में कृषि की विजेता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक है वर्षा की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, कृषि पद्धति विविधता आदि । इनके फल स्वरुप भारत में विविध फसलें उगाई जाती हैं इनमें प्रमुख धान गेहूं मकई , ज्वार, बाजरा, तिलहन- दलहन, पेय फसल, रेशे की फसल, उगाई जाती है।
चावल
हमारे यहाँ कि प्रमुख खाद्यान्न फसल है जिस पर अधिकांश जनसंख्या निर्भर करती है। विश्व का 22% चावल क्षेत्र भारत में है तथा यह कुल कृषि भूमि का 23% । चावल की कृषि के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाएँ निम्नांकित हैं (1) तापमान : यह उष्ण कटिबंधीय फसल है अतः इसकी उपज के लिये अधिक तापमान की आवश्यकता है। इसके लिये कम से कम 24° सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता है। बोते समय इसे 21°C, बढ़ते समय 24°C तथा पकते समय 27°C तापमान की आवश्कता होती है।
(1) वर्षा - इसकी फसल के लिये 125 सें०मी०-200 सेंमी० वर्षा की आवश्यकता होती इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में सिंचाई की सहायता से फसल उगाई जाती है।
(i) मिट्टी - इसके लिये अत्यंत उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी की आवश्यकता होती है। इसकी मिट्टी चीकायुक्त दोमट होनी चाहिए ताकि पौधे की जड़ अच्छी तरह विकसित हो सके। है।
(iv) श्रम - इसकी कृषि में मानव श्रम की अधिक आवश्यकता होती है। खेत की तैयारी से लेकर रोपनी-कटनी तक का कार्य मानव श्रम द्वारा ही संपादित होता है। भारत के सस्ते श्रमिक इसकी कृषि के लिए अनुकूल मानवीय वातावरण बनाते हैं ।
उत्पादन तथा वितरण : भारत का अधिकांश चावल जलोढ़ मिट्टी के क्षेत्र में तथा डेल्टाई एवं तटीय भागों में उत्पन्न किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह हिमालय पर्वत की निचली घाटियों में सीढ़ीनुमा खेतों में तथा दक्षिणी पठार के कुछ घाटी क्षेत्रों में भी उगाया जाता है।
सतलज-गंगा के मैदान में सिंचाई की सहायता से चावल की कृषि ने उल्लेखनीय प्रगति की है। इसके मुख्य उत्पादक राज्य प० बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, असम, केरल, तमिलनाडु आदि है। प० बंगाल में चावल की तीनों ही किस्में उपजाई जाती हैं।
गेहूँ की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों की विवेचना करें।
उत्तर मेहँ- गेहूँ दूसरी महत्त्वपूर्ण खाद्य फसल है। गेहूँ शीतोष्ण फसल है। चावल की तरह ही चीन के बाद भारत गहूँ का दूसरा उत्पादक देश है। इसकी निम्नलिखित दशाएँ उपयुक्त हैं
(1) फसल- रबी अनाज की फसल। (वर्षा- 75 सेमी से कम। फसल कटते समय वर्षा हानिकारक है।
(2)तापमान- बोते समय ठंडा तथा आर्द्र तापमान आवश्यक है। तापमान 10 cm से 15 cm तक होना चाहिए। गहूँ काटते समय तापमान 20cm से 30cm के मध्य होना चाहिए।
(3) मृदा दोमट मिट्टी। जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए। (v) उत्पादक राज्य गेहूँ की कृषि भारत के उत्तरी पश्चिमी भागों तक सीमित है जैसे: पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान, उत्तरी गुजरात तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश।
मोटे अनाज : ज्वार, बाजरा और रागी भारत में उगाए जाने वाले प्रमुख मोटे अनाज हैं। क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से ज्वार भारत का तीसरा महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है। 18° से 32° से. औसत मासिक तापमान इसके उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इसके लिए लगभग 30 से 60 से.मी. वर्षा की आवश्यकता होती है। ज्वार के प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश हैं।
बाजरा
बाजरा भी शुष्क और उष्ण जलवायु की फसल है। इसके उत्पादन की जलवायु दशाएं ज्वार के समान ही हैं। बाजरा का सर्वप्रमुख उत्पादक राज्य राजस्थान है। बाजरा के अन्य उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा हैं।
रागी
रागी वर्षा पर निर्भर एक खरीफ फसल हैं। इसे अच्छे जल निकास वाली जलोढ़ दुमट और लाल या काली बलुई दुमट मिट्टियों की आवश्यकता होती है। इसके लिए आवश्यक जलवायु दशाएं बाजरा के समान ही हैं। यह कर्नाटक और तमिलनाडु के शुष्क भागों में उगाई जाती हैं।
मक्का : यह एक मोटा अनाज है। इसका उपयोग खाने और चारे, दोनों के लिए होता है। इसे विभिन्न प्रकार की जलवायु दशाओं और मिट्टियों में उगाया जाता है। यह मुख्यतः खरीफ की फसल है। मक्का 50 से 100 से.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाई जाती है तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई की मदद से उगाई जाती है। इसके लिए 21° से. 27° तक तापमान की आवश्यकता होती है। इसे अच्छे जल निकास वाली मिट्टी चाहिए। मक्का देश के कुल कृषि क्षेत्र के 4 प्रतिशत भाग पर उगाई जाती है। मक्का उत्पादन के प्रमुख राज्य कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश हैं।
दालें:
भारत में अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है और हमारे भोजन में दाल प्रोटीन का स्रोत है। तूर (अरहर), उड़द, मूंग, मसूर, मटर और चना भारत की मुख्य दलहनी फसलें हैं। दालों के उत्पादन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है, जिस अनुपात में अनाजों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। वस्तुतः कुल फसल क्षेत्र में दालों की खेती का प्रतिशत घट गया है। दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है अतः इन्हें शुष्क परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है और 90% तक इसकी खेती मुख्यतः शुष्क कृषि तकनीक के अंतर्गत की जाती है। तूर (अरहर) को छोड़ कर बाकी अन्य दालें. वायु से नाइट्रोजन ले कर भूमि को उर्वर बनाती है। अतः इनको आम तौर पर अन्य फसलों के साथ फसल आवर्त्तन में रोपा जाता है। दालें खरीफ तथा रबी दोनों ही ऋतुओं में उगाई जाती है-अरहर, मूंग, उड़द आदि खरीफ की फसलें हैं जबकि चना, मटर, मसूर आदि रबी की फसलें हैं। दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय दाल विकास कार्यक्रम भी 1986-87 में शुरू किया गया, पर इसके परिणाम संतोषजनक नहीं है।
जारी .........
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