अध्याय 5

अध्याय 5
रोजगार एवं सेवा

संसाधन प्राकृतिक संसाधन : खनिज संसाधन

संसाधन प्राकृतिक संसाधन : खनिज संसाधन
सामान्य शब्दों में वे सभी पदार्थ जो खनन (mining) द्वारा प्राप्त किये जाते हैं; खनिज कहलाते हैं, जैसे-कोयला, पेट्रोलियम एवं धार्विक अयस्क (ores) ।

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पंचायती राज व्यवस्था : बिहार ( ग्राम पंचायत, ग्राम कचहरी, पंचायत समिति, जिला परिषद, नगर पंचायत, नगर परिषद, नगर निगम, महापौर एवं उपमहापौर, नगर आयुक्त)

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 पंचायती राज व्यवस्था : बिहार 

पंचायत हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। यह हमारी गहन सूझ-बुझ के आधार पर व्यवस्था-निर्माण करने की क्षमता की परिचायक है। यह हमारे समाज में स्वाभाविक रूप से समाहित स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता एवं संपूर्ण स्वंतत्रता के प्रति निष्ठा व लगाव का घोतक है।
                  देश में पंचायत राज को सशक्त बनाने, व्यवस्थित विकास की जिम्मेदारी देने तथा लोकोपयोगी बनाने के लिए राष्ट्र तथा राज्य स्तर पर कई कमिटियों का गठन किया गया।इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बलवंत राय मेहता कमिटी, अशोक मेहता तथा सिंधवी कमिटी हैं। 
                                                            
राष्ट्रीय स्तर पर पंचायती राज्य प्रणाली की विधिवत शुरुआत बलवंत राय मेहता समिति की अनुशंसा ओं के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले से हुई थी 1959 में ही आंध्र प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई उसके बाद अन्य राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था के स्थापना होने लगी | 

‘‘स्थानीय स्वशासन एक ऐसा शासन है, जो अपने सीमित क्षेत्र में प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करता हो।’’

                                भारत एक विशाल जनसंख्या वाला लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र की मूल भूत मान्यता है कि सर्वोच्च शक्ति जनता में होनी चाहिए । सभी  व्यक्ति इस व्यवस्था से प्रत्यक्षत: जुडंकर शासन कार्य से सम्बद्ध हो सकें इस प्रकार का अवसर स्थानीय स्वशासन ब्यवस्था द्वारा संभव हो सकता है। स्थानीय स्वशासन जनता द्वारा शासन स्थानीय स्वशासन कहलाता है। स्थानीय स्वशासन के दो क्षत्रे है। (1) ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र। पंचायती राज ग्रामीण व्यवस्था एवं नगरपालिका नगरीय व्यवस्था को कहा जाता है ।

ग्रामीण स्थानीय स्वशासन 

भारत में प्राचीन काल से ही भिन्न-भिन्न नामों से पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी जी के प्रभाव से पंचायती राज व्यवस्था पर ज्यादा जोर दिया गया। 1993 में 73 वां संविधान संशोधन करके पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता दी गयी  है।

  1. पंचायत व्यवस्था के अंतर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होगी। इसमें एक या एक से अधिक गाँव शामिल किये जा सकते है। 
  2. ग्राम पंचायत कर शाक्तियों के सम्बन्ध में राज्य विधान मंडल द्वारा कानून बनाया जायेगा । जिन राज्यों की जनसंख्या 20लाख से कम है वहॉ दो स्तरीय पंचायत (जिला व ग्राम ) का गठन किय जायेगा  । 
  3. सभी स्तरों की पंचायतो के सभी सदस्यों का चुनाव ‘वयस्क मताधिकार’ के आधार पर पांच वर्ष के लिए किया जायेगा । 
  4. ग्राम स्तर के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्षत: तथा जनपद व जिला स्तर के अध् यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से किया जायेगा । 
  5. पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए उनके सख्या के अनुपात में आरक्षण दिया जायेगा । 
  6. महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा । 
  7. पांच वर्ष के कार्य काल के पूर्व भी इनका (पंचायतो का) विघटन किया जा सकता है। परन्तु विघटन की दशा में 6 माह के अंतर्गत चुनाव कराना आवश्यकता होगा। 

 ग्राम पंचायत

‘पंचायत’ का शब्दिक अर्थ पाँच पंचो की समिति से है। प्राचीन काल में गाँव के झगड़ों का निपटारा पाँच पंचो की समिति द्वारा किया जाता था। इसी व्यवस्था से पंचायत शब्द का जन्म हुआ। ग्राम पंचायतो का मुख्य उद्देश्य गाँवो की उन्नति करना और ग्राम वासियों का आत्म-निर्भर बनाना है। प्राय: अधिकांश राज्यो के गाँवो में एक ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत होती है।

बिहार पंचायती राज अधिनियम 2000 द्वारा ग्राम पंचायतों का गठन किया गया है अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि बिहार सरकार के आदेश से जिला दंडाधिकारी जिला गजट में अधिसूचना निकाल कर किसी स्थानीय क्षेत्र को जिससे कोई गांव या निकटस्थ  गांव के समूह अथवा किसी गांव के भाग को ग्राम पंचायत घोषित कर सकता है इस क्षेत्र की जनसंख्या लगभग 7000 के करीब होगीl अधिनियम में जिलाधिकारी को यह अधिकार दिया गया है कि वह ग्राम पंचायत में किसी गांव को या उसके विभाग को अलग कर सकता है या उसमें शामिल ही कर सकता है l एक पंचायत क्षेत्र लगभग 500 की आबादी पर वार्डों में विभक्त होता है जिसकी संख्या सामान्यता 15 से 16 तक होती है |

  1. ग्राम सभा गांव के वयस्क नागरिकों को मिलाकर बनायी जाती है। 
  2. ग्राम पंचायत में एक सरपंच, एक उप-संरपच और कुछ पंच होते है ये सभी गा्रम सभा द्वारा चुने प्रतिनिधि होते है। 
  3. न्याय पंचायत का चुनाव सम्बन्धित ग्राम पंचायत करती है। न्याय पंचायत केवल ग्रामीणों के निम्न स्तर के दीवानी और फौजदारी विवादों को सुनती है, न्याय पंचायतों एक निश्चित धन राशि तक जुर्माना वसलू सकती है। किन्तु कारावास की दण्ड नही दे सकती। 

ग्राम पंचायत के कार्य- 

गांव के विकास के लिए बहुत सारे कार्य ग्राम पंचायत के अधीन होते हैं, ग्राम पंचायत इन कार्यों को अपनी जिम्मेदारी से कार्यान्वित करता है| ग्राम पंचायत के कार्य अग्रलिखित हैं-
1- ग्राम पंचायत कृषि संबंधी कार्य की रूपरेखा तैयार करती है और कृषि संबंधी व्यवधानों को अपने स्तर पर ठीक करती है|
2- ग्राम पंचायत गांव के चतुर्मुखी विकास की जिम्मेदारी का निर्वहन करती है|
3- ग्राम पंचायत प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक विद्यालय व अनौपचारिक शिक्षा संबंधी कार्य करती है|
4- युवा कल्याण सम्बंधी कार्यों की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत के अंतर्गत आती है|
5- राजकीय नलकूपों की मरम्मत व रखरखाव का कार्य ग्राम पंचायत करती है|
6- ग्रामीण स्तर पर चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सम्बंधी कार्य की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत की होती है|
7- ग्राम पंचायत महिला एवं बाल विकास सम्बंधी कार्य को करती है|
8- पशुधन विकास सम्बंधी कार्य
9- समस्त प्रकार की पेंशन को स्वीकृत करने व वितरण का कार्य ग्राम पंचायत का होता है|
10- छात्रों को प्राप्त समस्त प्रकार की छात्रवृत्तियों को स्वीकृति करने व वितरण का कार्य ग्राम पंचायत का होता है|
11- राशन की दुकान का आवंटन व निरस्तीकरण ग्राम पंचायत के कार्यों के अंतर्गत आती है|
12- पंचायती राज सम्बंधी ग्राम्यस्तरीय कार्य आदि।

ग्राम पंचायत के आय के साधन- 

राज्य व्यवस्थापिका पंचायतों को टैक्स लगाने एवं उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार देती है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त होता है। इस आय व्यय का जांच करने के लिए वित्त आयोग गठित है जो अपनी रिपार्ट प्रति 5 वर्ष में राज्यपाल को देगा। जिलाधीश को पंचायतों का निरीक्षण एव समय से पवूर् भंग करने का अधिकार दिया गया है।

 ग्राम पंचायत के प्रमुख अंग

ग्राम पंचायत के 4 अंग होते हैं 1.ग्राम सभा 2.मुखिया 3.ग्राम रक्षा/दलपति 4.ग्राम कचहरी
ग्राम सभा ग्राम सभा पंचायत की व्यवस्थापिका सभा हैl ग्राम पंचायत क्षेत्र में रहने वाले सभी वयस्क स्त्री पुरुष जो 18 वर्ष से अधिक उम्र के हैंl ग्राम सभा के सदस्य होंगे ग्राम सभा की बैठक वर्ष भर में कम से कम 4 बार होगी मुखिया ग्राम सभा की बैठक  बुलाएगा और उसकी अध्यक्षता करेगा l

ग्राम रक्षा दल का गठन

सामान्य पहरा, निगरानी एवं आकस्मिक घटनाओं जैसे अगलगी, बाढ़, बांध में दरार, महामारी, चोरी, डकैती आदि का सामना करने,सार्वजनिक शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने तथा सरकार द्वारा समय-समय पर सौंपे गये कार्यों को सम्पादित करने हेतु विहित रीति से एक दलपति की नियुक्ति की जाएगी।

एक दलपति के अधीन प्रत्येक ग्राम पंचायत के अंतर्गत एक ''ग्राम रक्षा दल'' का गठन किया जाएगा। ग्राम रक्षा दल में ग्राम के 18 वर्ष से 30 वर्ष तक के शारीरिक रूप से सभी योग्य व्यक्ति सदस्य होंगे। ग्राम रक्षा दल के गठन, कर्तव्य एवं उपयोग के लिए सरकार नियम बनाएगी।

ग्राम कचहरी

प्रति ग्राम पंचायत क्षेत्र में न्यायिक कार्यों को संपन्न करने हेतु 1 ग्राम कचहरी का गठन किया जाता है ग्राम कचहरी का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा किया जाता है जिसमें एक निर्वाचित सरपंच होता है और निश्चित संख्या में प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित पंच लगभग 500 की आबादी को प्रतिनिधित्व करता हैl ग्राम कचहरी में भी अनुसूचित जाति जनजाति पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित हैl ग्राम पंचायत के तरह ग्राम कचहरी का भी कार्यकाल 5 वर्ष का है यदि ग्राम कचहरी को पहले भी गठित किया जाता है तो पुण: निर्वाचन 6 महीने के अंदर करा लेना पड़ता है l ग्राम कचहरी का प्रधान सरपंच होता है अधिनियम के अनुसार ग्राम कचहरी का सरपंच ग्राम पंचायत की मतदाता सूची में पंजीकृत मतदाताओं के बहुमत द्वारा प्रत्यक्ष ढंग से निर्वाचित किया जाएगा निर्वाचन के बाद ग्राम कचहरी अपनी पहली बैठक में निर्वाचित पंच ओं में से बहुमत द्वारा एक उपसरपंच का चुनाव करती है | ग्राम कचहरी का एक सचिव होता है जिसे न्याय मित्र के नाम से जाना जाता है, उसकी नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है | न्याय मित्र सरपंच के कार्य में सहयोग देता है, वहीं न्याय सचिव ग्राम कचहरी के कागजात को रखता है| सरपंच सभी प्रकार के अधिनियम 10000 तक के मामले की सुनवाई कर सकता है |

ग्राम सभा और ग्राम पंचायत में अंतर

1- ग्राम सभा में एक गांव (या गांवों के एक समूह) के सभी वयस्क (18 वर्ष से ऊपर) के सदस्य होते हैं। जबकि ग्राम पंचायत एक छोटी सी संस्था है जिसके सदस्य ग्राम सभा के वयस्कों द्वारा चुने जाते हैं|
2- ग्राम पंचायत का कार्य आम तौर पर 5 वर्ष है, जबकि ग्राम सभा स्थायी निकाय है और इसकी अवधि निर्धारित नहीं है|
3- ग्राम पंचायत ग्राम सभा का कार्यकारी अंग है। ग्राम सभा ग्राम पंचायत के काम का मूल्यांकन करती है और मूल्यांकन करती है।


प्रत्येक प्रखंड के लिए एक पंचायत समिति होती है पंचायत समिति में निम्नलिखित प्रकार के सदस्य होते हैंl

1. निर्वाचित सदस्य प्रखंड को कई निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य निर्वाचित होते हैं जो 5000 लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं l अनुसूचित जाति जनजाति तथा पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के हिसाब से स्थान सुरक्षित होते हैं l महिलाओं के लिए 50% स्थान आरक्षित हैl 

2पदेन सदस्य निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त ग्राम पंचायत का मुखिया पंचायत समिति का पदेन सदस्य होता है l  इसके अलावा सदस्य के रूप में विधानसभा और लोकसभा के सदस्य होते हैं सभी सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है l पंचायत समिति के निर्वाचित सदस्य अपने में से एक उप प्रमुख निर्वाचित करते हैंl  सामान्यतः प्रखंड विकास पदाधिकारी वीडियो पंचायत समिति का कार्यपालक पदाधिकारी होता है l

पंचायत समिति के कार्य

समिति सभी ग्राम पंचायतों की वार्षिक योजना पर विचार विमर्श करती है तथा समिति योजना को जिला परिषद में  प्रस्तुत करती है l पंचायत समिति ऐसे कार्यों का संपादन एवं निष्पादन करती है, जो राज्य सरकार तथा या जिला परिषद् इस इस होती है l इसके अतिरिक्त सामुदायिक विकास कार्य एवं प्राकृतिक आपदा के समय राहत का प्रबंध करना भी इनकी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी है पंचायत समिति अपना अधिकांश कार्य स्थाई समिति द्वारा करती हैl

 उप प्रमुख पंचायत समिति के निर्वाचित सदस्य अपने में ही से एक को प्रमुख निर्वाचित करते हैं l प्रमुख की अनुपस्थिति में पंचायत समिति की बैठक की अध्यक्षता उप प्रमुख ही करता हैl


प्रत्येक जिला में से एक जिला परिषद का गठन किया जाता है संपूर्ण जिला को क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र में बांट दिया जाता है l प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में से एक सदस्य निर्वाचित होता है जो 50000 की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है जिला परिषद का कार्यकाल उसकी प्रथम बैठक की निर्धारित थी से अगले 5 वर्ष तक के लिए निश्चित होता है जिला परिषद के निर्वाचित सदस्य भी अपने में से एक को अध्यक्ष और एक को उपाध्यक्ष निर्वाचित करते हैंl जिला अधिकारी की श्रेणी का पदाधिकारी जिला परिषद का मुख्य कार्यपालक अधिकारी होता है, उसकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है l 

पंचायतों के निर्वाचन नियमावली तैयार करवाने और पंचायतों के सभी निर्वाचन के संचालन निष्पादन एवं नियंत्रण के लिए निर्वाचन आयोग उत्तरदाई हैl पंचायत के लिए निर्वाचन आयोग की नियुक्ति राज्यपाल करता हैl प्रत्येक 5 वर्ष के अवसर पंचायतों की वित्तीय स्थिति का पूर्वावलोकन करने के लिए राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाता हैl 

बिहार की नगरीय शासन व्यवस्था 

जो कार्य ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम पंचायत द्वारा किये जाते है, शहरों में इस प्रकार के कार्य नगरपालिका और नगर निगम या नगर परिषद के द्वारा किये जाते हैl शहरों में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं का स्वरूप वहां की जनसंख्या के अनुसार किया जाता हैl20,000 से अधिक एवं एक लाख से कम जनसंख्या वाले नगर नगरपालिका, एक लाख से अधिक किन्तु पांच लाख से कम जनसंख्या वाले नगर में नगर परिषद तथा पांच लाख या इससे अधिक जनसंख्या वाले नगर में नगर निगम होता हैl

नगर पंचायत 

बिहार नगरपालिका अधिनियम 2007 पारित कर नगर पंचायतों के गठन की व्यवस्था की गई है इस अधिनियम के अनुसार जिस शहर की जनसंख्या 12000 से 40000 के बीच हो तथा उस शहर के व्यस्त की तीन चौथाई जनसंख्या कृषि से भिन्न कार्यों में लगी हो वहां नगर पंचायत की स्थापना की जाती हैl नगर पंचायत के सदस्य की न्यूनतम संख्या 10 से अधिक और अधिकतम 25 हो सकती है l नगर पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन वार्डों के मतदाताओं के द्वारा प्रत्येक जन  से होता है l नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का है l इसके निर्वाचित सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को निर्वाचित करते हैं l नगर पंचायतों में भी अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति पिछड़े वर्ग तथा महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है l 
नगर पंचायत के मुख्य कार्य अपने क्षेत्र का आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण के लिए योजना तैयार करना 

नगर परिषद 

नगर पंचायत से बड़े शहरों में नगर परिषद का गठन किया जाता है वैसे शहर जिसकी जनसंख्या कम से कम 200000 से 300000 के बीच होती हैl वहां नगर परिषद की स्थापना की जाती है नगर परिषद का गठन व से शहर में की जाती हैl जहां पूरी जनसंख्या का तीन चौथाई भाग अपनी आजीविका के लिए कृषि छोड़े अन्य कार्य में लगे रहते हैं साथ ही इस शहरों में जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 व्यक्ति होना चाहिए l

बिहार नगरपालिका अधिनियम 2007 के अनुसार नगर परिषद में वार्डों की संख्या 35 से 45 तक हो सकती है प्रत्येक वार्ड में 1 सदस्य चुनकर आते हैं उन्हें वार्ड कमिश्नर भी कहा जाता है l

नगर परिषद के अंग 

1. नगरपर्षद नगर परिषद का एक प्रमुख अभिकरण नगर परिषद होता है इसके सदस्य पार्षद या कमिश्नर कहलाते हैंl इसके सदस्य कम से कम 10 और अधिक से अधिक 40 होती है इसके 80% सदस्य निर्वाचित होते हैं और शेष 20% सदस्य मनोनीत होते हैंl पार्षद का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है राज्य सरकार पूरी परिषद को भंग कर सकती हैl इसके बैठक महीने में एक बार होती है lपार्षद के सदस्य अपने में से एक को अध्यक्ष और एक को उपाध्यक्ष नियुक्त करती है l
2. समितियां नगर परिषद के कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए नगर परिषद में कई समितियां होती हैं l समितियां को नगर पार्षद नियुक्त करती हैं जिसमें से 3 से 6 सदस्य होते हैं l
3. अध्यक्ष व उपाध्यक्ष बिहार के प्रत्येक नगर परिषद की 1 मुख्य पार्षद अध्यक्ष एवं मुख्य पार्षद उपाध्यक्ष होता है l इन दोनों का चुनाव नगर परिषद के सदस्यों द्वारा होता है l नगर परिषद नगर परिषद का प्रधान होता है l 
4. कार्यपालक पदाधिकारी प्रत्येक नगर परिषद में 1 कार्यपालक पदाधिकारी का पद होता हैl  जिसकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा होती है l 
बिहार नगरपालिका अधिनियम 2007 के अनुसार वैसे ही नगरों में नगर निगम की स्थापना की जाती हैl जिसकी आबादी कम से कम तीन लाख है भारत के कई नगरों में नगर निगम में बिहार की राजधानी पटना में सबसे पहले 15 अगस्त 1952 को नगर निगम की स्थापना की गई वर्तमान में पटना के अतिरिक्त अन्य नगरों में नगर निगम की स्थापना हो चुकी है l वह हैं गया, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, बिहारशरीफ, आरा बेगूसराय l

निर्वाचन निर्वाचन के उद्देश्य से नगर निगम को कई भागों में बांट दिया जाता है प्रत्येक वार्ड में से एक सदस्य निर्वाचित होकर आते हैं निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है नगर निगम में कम से कम 45 और अधिक से अधिक 75 बार हो सकते हैंl

 


नगर निगम के प्रमुख अंग

1. निगम परिषद समूचे नगर निगम क्षेत्र को विभिन्न भागों में बांटा जाता है जिसे वार्ड हम कह सकते हैं l इस तरह के विभक्त प्रत्येक क्षेत्र में उस क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा एक-एक प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आते हैं, उन्हें वार्ड पार्षद या वार्ड काउंसिल्लोर कहते हैं पार्षद का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है l निर्वाचित सदस्यों के अलावा विशेष हितों के प्रति में भी करने वाले समूह जैसे चेंबर ऑफ कॉमर्स व्यापार संघ एवं निबंधित स्नातक के सदस्य भी परिषद के सदस्य हो सकते हैंl  निर्वाचित सदस्यों के द्वारा मनोनीत सदस्य मिलकर कई संयोजित सदस्य का चयन करते हैं l निगम परिषद की बैठक प्रत्येक महीने होते हैं l जिसका मुख्य काम होता है नियम बनाना निर्णय लेना और टैक्स लगानाl 

महापौर एवं उपमहापौर निगम परिषद अपने सदस्यों के बीच एक महापौर एवं उपमहापौर चुनती है l महापौर निगम परिषद का सभापति होता है तथा निगम की बैठक की अध्यक्षता करता है साथ ही सशक्त स्थाई समिति की अध्यक्षता करता हैl महापौर नगर का प्रथम नागरिक माना जाता है इस नाते और नगर में आए अतिथियों का स्वागत नगर की ओर से करता है महापौर की अनुपस्थिति में नगर परिषद के सभी कार्यभार उपमहापौर संपादन करते हैंl

2. सशक्त स्थानीय समिति 
नगर परिषद के सभी प्रमुख के कार्य सशक्त समिति द्वारा की जाती है यह समिति कुछ कर्मचारियों की नियुक्ति करने की ट्रिक नगर आयुक्त पर नियंत्रण रखती है महापौर एवं उपमहापौर इस समिति के सदस्य होते हैं तथा इसकी अध्यक्षता महापौर द्वारा की जाती है l
3. परामर्श दात्री समितियां 
नगर निगम के कुछ परामर्श दाई समितियां भी होती हैं जैसे शिक्षा समिति बाजार एवं उद्यान समिति आदि यह समितियां अपने अपने विषय पर निगम परिषद को सलाह देती है l
4. नगर आयुक्त 
नगर निगम के इस पदाधिकारी की नियुक्ति बिहार सरकार द्वारा की जाती है या पराया भारतीय प्रशासनिक सेवा स्तर का पदाधिकारी होता है l नगर आयुक्त नगर निगम का प्रमुख प्रशासक होता है एवं नगर निगम के सभी कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करता है l मगर नगर आयुक्त कुछ कर्मचारियों की भी नियुक्ति कर सकता है l  नगर आयुक्त निगम परिषद एवं सशक्त स्थाई समिति द्वारा किए गए नियमों के अनुरूप कार्य का संपादन करता है l 

नगर निगम के कार्य 
नगर निगम को भी अपने क्षेत्र में ही कार्य करने पड़ते हैं जो नगर परिषद के हैं फिर भी सुविधा के लिए नगर निगम के मुख्य कार्यो की सूची दी जा रही है -

1. सड़क का निर्माण मरम्मत एवं सफाई
2. नालियों का निर्माण मरम्मत एवं सफाई
3. सार्वजनिक स्थानों के कूड़े करकट की सफाई
4. रोशनी का प्रबंध करना
5. पीने का पानी का प्रबंध करना
6. पशुओं की रक्षा करना तथा इसके इलाज की व्यवस्था करना
7. लोगों के स्वास्थ्य एवं इलाज का प्रबंध करना
8. शिक्षा के लिए स्कूलों के स्थापना करना तथा उसका प्रबंधन करना
9. बाजार हाट मेले इत्यादि का प्रबंध करना
10. पुस्तकालयों तथा कला केंद्र की स्थापना करना
11. पार्क फुलवारी आदि का निर्माण और प्रबंधन करना
समाप्त 


सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली अध्याय 2 (क ) 10 वी एवं सभी प्रतियोग्याता परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण नोट्स

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अध्याय 2 (क )
सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली 


सत्ता की साझेदारी से तात्पर्य है कि उसकी जिम्मेदारी ऊपर से नीचे तक बांटी होती है। सत्ता के शक्तियां किसी एक बिंदु पर ही सिमटने नहीं पाती, वह विभिन्न रूपों में बट जाती है । भारत का उदाहरण ले तो यहां केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक अधिकार और कर्तव्य पूर्णता बड़े होते हैं 
सत्ता के साझेदारी का एक रूप
1. कार्यपालिका 2. न्यायपालिका 3. व्यवस्थापिका मे बांटा हुआ होना भी है 
न्यायपालिका यह देखती है कि कोई किसी के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर पाते राज्य सरकारें जिला से लेकर ग्राम पंचायतों तक सत्ता की साझेदारी की व्यवस्था करती है नगर निगम, नगर पंचायत, नगर पालिका, नगर परिषद, जिला परिषद, पंचायत समिति ग्राम पंचायत आदि इसी के उदाहरण है ।

सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र में क्या महत्व रखती है ?
सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र में बहुत अधिक महत्व रखती है । इसी के चलते कोई किसी को दबाकर नहीं रख सकता, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की एकमात्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें ताकत सभी के हाथों में होती है। सभी को राजनीतिक शक्तियों में हिस्सेदारी या साझेदारी करने की व्यवस्था रहती है। इसका महत्व विशेषताएं इस बात में है कि किसी को असंतोष प्रकट करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यदि बहुमत आपके साथ है तो अर्थ है कि सभी आपसे संतुष्ट है यदि किसी को केंद्र में मौका नहीं मिलता  वो राज्य के शासन में साझेदारी कर सकता है । यदि वह इसमें भी असफल हो जाता है , तो स्थानीय निकायों में अपना भाग आजमाता है यदि वहां भी उसे जीत नहीं मिलती इसका अर्थ है कि जनता उसे इस काबिल नहीं समझती | भले ही वह विरोध का झंडा लहराते रहे | 
सत्ता की साझेदारी के अलग अलग तरीके क्या है ?
आधुनिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सत्ता के भागीदार के रूप में कई स्तर देखने को मिलता है जिनमें चार प्रमुख रुप हैं- 
सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का विभाजन सरकार के तीन अंग होते हैं विधायिका ,  कार्यपालिका एवं न्यायपालिका
किसी एक अंग में सत्ता केंद्रित नहीं कर के सरकार ने तीनों अंगों के बीच जब सत्ता का विभाजन कर दिया जाता है तब उसे शक्तियों का पृथक्करण कहते हैं । इससे किसी एक अंग के द्वारा शक्ति के दुरुपयोग की संभावना नहीं रहती । एक ही स्तर पर आकर सरकार के तीनों अंग अपनी-अपनी सत्ता का प्रयोग करते हैं इस आधार पर इसे सत्ता का क्षेत्रीय विभाजन कहा जाता है।इससे सरकार के तीनों अंगों के बीच संतुलन बना रहता है इसे नियंत्रण एवं संतुलन व्यवस्था भी कहते हैं। 
विभिन्न स्तरों पर संगठित सरकारों के बीच सत्ता का विभाजन किसी भी बड़े लोकतांत्रिक शासन एक जगह से नहीं चलाया जा सकता है । सामान्यता शासन व्यवस्था को तीन स्तरों पर विभाजित किया जाता है राष्ट्रीय स्तर पर, केंद्र स्तर पर तथा प्रांतीय या क्षेत्रीय स्तर पर । सत्ता का विभिन्न स्तरों पर गठित सरकारों के बीच बीच विभाजन कर दिया जाता है । भारत में भी दो स्तरों पर सरकार का गठन की व्यवस्था की गई है केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार  संविधान द्वारा सरकार तथा राज्य सरकार के बीच सत्ता का विभाजन कर दिया गया इस उद्देश्य तीन सूचियां बनाई गई हैं संघ सूची, राज्यसूची एवं समवर्ती सूची। 

विभिन्न समुदायों के बीच सत्ता का विभाजन किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं विभिन्न धर्म के लोग रहते हैं अलग-अलग भाषाएं अलग-अलग जाति के लोग रहते हैं जिसको दो आधारों पर मुख्यता बांटा जाता है।अल्पसंख्यक  एवं बहुसंख्यक सत्ता का बंटवारा अल्पसंख्यक समुदाय और बहुसंख्यक समुदाय दोनों के बीच कर दिया जाता है । विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता के विभाजन होने से आपसी एकता बनी रहती है 

सत्ता का साझेदारी का प्रत्यक्ष रुप तब दिखता है 
जब दो या दो से अधिक दल मिलकर चुनाव लड़ती है या सरकार का गठन करती है ।
सत्ता में भागीदारी की आवश्यकता– सत्ता के भागीदारी की आवश्यकता लोकतंत्र में सफल संचालन में सहायक होता है सत्ता में भागीदारी राजनीतिक व्यवस्था को दृढ़ता प्रदान करती हैं एवं विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता का विभाजन करके आप आपसी टकराव को कम किया जाता है ।

भारत में संघीय शासन व्यवस्था की आवश्यकता क्यों पड़ी? 
हमारे भारत में विभिन्न जाति धर्म संप्रदाय भाषा परंपरा और संस्कृति के लोग निवास करते हैं एकात्मक संविधान की व्यवस्था पर उन्हें एकता के सूत्र में नहीं मान सकता था भारत जैसे विशाल भारत में संघीय शासन व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी  
भारत की संघीय शासन व्यवस्था की किन्हीं विशेषताओं का उल्लेख करें  
भारत की संघात्मक व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं हैं- 
· दोहरी सरकार 
· अधिकार क्षेत्र अलग अलग 
· स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका 
· संविधान की सर्वोच्चता 
· संविधान के मौलिक प्रावधानों में संवैधानिक संशोधन द्वारा ही परिवर्तन 
· छत्रिय विविधताओं का सम्मान 
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का क्या अर्थ है ?
भारतीय संविधान द्वारा एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई है इसका उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करके जनता के जीवन को सुखमय बनाने का प्रयास करना है लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा जारी की गई योजनाओं को स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं द्वारा क्रियान्वित कराने का प्रयास किया जाता है  
                                                                                        संविधान की सर्वोच्चता संघीय शासन व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि मेरे सरकारी अधिकारियों की सरकार ने संविधान के ऊपर नहीं है सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का रक्षक बनाया गया है  
संघीय शासन व्यवस्था की एक विशेषता यह है कि इसमें क्षत्रिय विविधताओं का पूरा सम्मान किया जाता है  राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति के उद्देश्य के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि दोनों स्तरों की सरकारों के बीच सत्ता विभाजन की व्यवस्था पर समाहित सहमति हो राष्ट्रीय एकता बनी रहे इसलिए केंद्र को शक्तिशाली बनाया गया है  राज्य सरकारों को वह उसके कार्यों के बारे में निश्चित और जोरदार आदेश दिया गया है , तथा विकास की दिशा में समग्र प्रगति करने की बात कह कर राष्ट्रीय एकता के आधार को मजबूत किया गया है 
संघ राज्य का अर्थ 
संघ राज्य का अर्थ है - सत्ता का ऊर्ध्वाधर वितरण इस तरह के राज्य के लिए पूरे देश की एक सरकार केंद्र सरकार होती है और राज्य प्रांतों के लिए अलग-अलग केंद्र और राज्यों के बीच संविधान में उल्लेखित सत्ता शक्ति का स्पष्ट बंटवारा रहता है  राज्य के नीचे भी सत्ता के साझेदार रहते हैं जिसे स्थानीय स्वशासन कहते हैं । सत्ता के इसी बंटवारे को संघराज्य संघवाद कहते हैं 
सत्ता की साझेदारी की कार्यप्रणाली को हम दो भागों में बांट सकते हैं संघात्मक शासन व्यवस्था अर्थात दोहरी सरकार एकात्मक शासन व्यवस्था अर्थात इकहरी सरकार | 
संघीय शासन व्यवस्था की पांच मुख्य विशेषताएं 
ü संघीय शासन व्यवस्था में सरकार दो या अधिक स्तर वाली होती है 
ü प्रत्येक स्तर की सरकार का अपना अपना अधिकार क्षेत्र होता है 
ü इसके अंतर्गत अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है 
ü वित्तीय स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए संघीय शासन व्यवस्था में प्रत्येक स्तर की सरकार के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं 

शासन के संघीय और एकात्मक स्वरूपों में अंतर

संघीय शासन

एकात्मक शासन

संघीय शासन व्यवस्था में सरकार के विभिन्न स्तरों में सत्ता की साझेदारी होती है जैसे केंद्र व राज्य सरकार के बीच सत्ता की साझेदारी 

एकात्मक शासन व्यवस्था में शासन की संपूर्ण शक्ति केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार के हाथ में होती है  

संघीय शासन व्यवस्था में के केंद्र में राष्ट्रीय अथवा राज्यों के मुद्दे होते हैं 

एकात्मक सत्ता हमेशा सत्ता के केंद्रीयकरण पर बल देती है  

संघीय शासन व्यवस्था में केंद्र व गैर केंद्रीय सरकार के बीच संविधान के अनुसार सत्ता का स्पष्ट विभाजन होता है कनाडा ब्राजील तथा संयुक्त राज्य अमेरिका आदि संघीय शासन व्यवस्था के उदाहरण है 

एकात्मक शासन व्यवस्था में किसी प्रकार का कोई प्रावधान नहीं होता इटली फ्रांस जापान आदि एकात्मक शासन व्यवस्था के कुछ उदाहरण है 


समाप्त 

STANDARD GEOLOGICAL TIME SCALE मानक भौगोलिक समय मापक

Susmita Mishra

   


STANDARD GEOLOGICAL TIME SCALE 

मानक भौगोलिक समय मापक 



भूमिका - पृथ्वी के वर्तमान भुगर्भिक इतिहास की गणना उसी समय से की गई है जब पृथ्वी ठोस रूप में बदल गई और चट्टान में जीवाश्मो का मिलना उसकी आयु संबंधी गणना का सर्वप्रमुख आधार है, और उसी पर क्रियाशील शक्तियां का प्रमाण भी । धरातलीय चट्टानों के अध्ययन द्वारा इनके निर्माण काल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। 
According to scatis geologist James Hatan “Rocks are the pages of the book of earth history / Present is the key of past. 
पृथ्वी की आयु 4500 मिलियन वर्ष पूर्व माना गया है l
ERA AND EPOCH OF STANDARD GEOLOGICAL TIME SCALE- 
कल्प (ERA)- हमारे संपूर्ण भूगर्भिक इतिहास को सर्वप्रथम 5 बड़े भागों में विभाजित किया गया जिन्हें कल की संज्ञा दी गई है 
1.नूतन कल्प  2.सेनोजोइक कल्प  3.मेसोजोइक कल्प  4.पैल्योजोइक कल्प 
5.आद्ध कल्प 
युग ( EPOCH) भूगर्भिक कलानुक्रम सारणी के प्रत्येक कल्प को पुनः व्यवस्थित क्रम प्रदान किया गया, जिन्हें युगों की संज्ञा दी गई। आज से प्रारंभ तक इसका क्रम है – 
1. चतुर्थक युग  2. तृतीय युग   3.द्वितीय युग  4.प्रथम युग 

पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास का वर्णन निम्नलिखित हैं – 
पूर्व कैमब्रियन या आद्ध कल्प(PRE- CAMBRAIN OR ARCHEAN ERA) 
पृथ्वी की उत्पत्ति के पश्चात एक शांत समय की उपस्थिति स्वीकार की जाती है जिसके बारे में विशिष्ट जानकारी का अभाव है। आज से लगभग 1750 मिलियन वर्ष पूर्व 3895 मिलियन वर्ष का प्री कैंब्रियन रहा था, इस कल्प के तीन उपविभाग हैं- 
EOZOIC – अत्यंत प्राचीन काल के इस समय में जीवावशेषो का पूर्णता अभाव पाया जाता है तथा इसके बारे में विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होता।ARCHEOZOIC- इस युग की चट्टानों में घास तथा स्पंज की अवशेष पाए जाते हैं जिससे यह जानकारी मिलती है कि पृथ्वी पर जीवन का आरंभ हो रहा था तथा जलवायविक परिवर्तन परिलक्षित होने लगे थे। 
PROTEROZOIC- इस काल में समुद्री जीव अवशेषों की प्राप्ति से यह ज्ञात होता है कि सागरी जीवों का जीवन भी प्रारंभ हो गया था। यह समय 600 मिलियन से 750 मिलियन बरसों के बीच था। 
  
संपूर्ण प्री कैंब्रियन कल्पना में प्राया आग्नेय चट्टान ही पाई जाती हैं, जो कालांतर में कायांतरित एवं अवसादी चट्टानों में परिवर्तित हो गई । इस युग में निर्मित चट्टानों की मोटाई ज्ञात नहीं की जा सकती है यद्यपि इसकी पहचान कर ली गई है इसमें सुपीरियर झील के समीपवर्ती 1.2 लाख धनकिलोमीटर क्षेत्र पर आग्नेय चट्टान का विस्तार हुआ था तथा प्री कैंब्रियन काल के पर्वत तथा चट्टानें (भारत में धारवाड़ चट्टान ए तथा अरावली पर्वत) पाई जाती है यदि इसका कुछ भाग का कायांतरण हो गया है। 
पुराजीवी कल्प (PALAEOZOIC ERA)- 
इस कल्प में प्रारंभिक काल में वनस्पति एवं जीवों का विकास अपेक्षाकृत तीव्र गति से हुआ।इस कल्प के प्रारांभिक काल मे वनस्पति एवं जीवाविशेष मध्यकाल में मछलियों के अवशेष तथा अंतिम काल में रेंगने वाले जीवों के अवशेष पाए जाते हैं। इसके निम्नलिखित उपवर्ग हैं- 
CAMBRIAN- इसका काल 100-600 मिलियन वर्ष रहा। इसमें विशेषता प्रदर्शनों का विस्तार हुआ जो आज भी उसी रूप में विद्यमान है हमारे देश के विंध्याचल पर्वत का निर्माण इसी काल में हुआ है। 
ORDOVICIAN - इसका काल 60 मिलियन बर्ष रहा। 500-430 मिलियन बर्ष पूर्व की अवधि पूर्व की अवधि वाले इस युग के अंत समय में पृथ्वी की पर्वत निर्माणकारी शक्तियों ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया था इस काल के चट्टानों में विशेष रूप से रेंगने वाले जीवों के अवशेष पाए जाते हैं। 
SILURIAN - 440 400 मिलियन वर्ष पूर्व तक इस युग का काल 35 मिलियन वर्ष को अशांत काल कहा जाता है, क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर हलचल (CALIDONYAN OROGENESIS) हुआ था जिसके फलस्वरुप स्केंडिनेविया के पर्वत तथा स्कॉटलैंड के पर्वत आदि चट्टानों का निर्माण हुआ। इस काल में मछलियों का विकास हुआ था इस काल में निर्मित चट्टानों की मोटाई 15000 मीटर है 
DIVONIAN- 400 मिलियन 350 मिलियन वर्ष पूर्व इस युग की अवधि 60 मिलियन बर्ष रहा । पर्वत निर्माणकारी हलचलों के परिणाम स्वरुप विभिन्न पर्वत श्रेणियों एवं चट्टानों का निर्माण होता रहा इस काल में निर्मित चट्टानों की मोटाई 36000 फीट मानी जाती है। 
CARBONIFEROUS - 350- 270 मिलियन बर्ष 60 मिलियन बर्ष के काल का यह युग रहा है। जिसमें कोयले का निर्माण हुआ। वेगनर महोदय ने इसी काल में पैंजिया नामक महाद्वीप के विघटन की बात स्वीकार की। 
PERMIAN- 440 मिलियन बर्ष प्रारंभ हुई कैलिडोनियम पर्वत कारी हलचल इसी काल में भी जारी रही जिसे हर्सिनियन, बर्सिकन हलचल कहा जाता है । इस काल में निर्मित चट्टाने यूरोप (फ्रांस तथा इस स्पेन के पर्वतीय भागों) एवं उत्तरी अमेरिका अप्लेशियन पर्वत क्षेत्र 270 225 मिलियन वर्ष पूर्व तक की अवधि में रेंगने वाले जीवो की अधिकता थी । इसका 50 मिलियन बर्ष तक का अवधी रहा। इस काल में विंध्याचल पर्वत एवं सतपुड़ा की पहाड़ियों का भी निर्माण एवं विकास हुआ। 
MESOZOIC ERA - पिछले कल्पों की अपेक्षा शांत रहे इस काल की अवधि 225 से 65 मिलियन वर्ष पूर्व तक का है। इस में रहने वाले जीव अधिक मात्रा में विद्यमान थे तथा समुद्री भागों में अधिक जमा हुआ। इस कल्प के तीन उपविभाग हैं 
TRIASSIC- इसका समय 40 मिलियन बर्ष रहा । 225 से 180 मिलियन वर्ष पूर्व जिसमें भूगर्भिक इतिहास में जीवो की प्रचुरता का समय है। इस काल में जहां महाद्वीप जुड़े हुए थे वहीं हिमालय, इंडीज, ऑलप्स आदि पर्वत श्रेणियों के स्थान पर विशाल समुद्री जल हिलोरे भरता था। हिमालय के स्थान पर विद्यमान टेथिस सागर में निरंतर मलबों का निक्षेप हो रहा था। पैंजिया का विघटन जारी था। इस वक्त की जलवायु अत्यंत गर्मी थी 
जुरासिक- (जुरासिक) – 35 मिलियन वर्षों वाला इस युग में धरातल पर रहने वाले रीढ़ विहीन जीवों के अधिकता थी इस काल में निर्मित चट्टानों की मोटाई 2000 फीट था । इस युग में हाथी व गैंडे के समान विशालकाय (डायनोसोर) थे। आज से लगभग 180 से 135 मिलियन वर्ष का समय रहा था। 
CRETACEOUS - इस युग का काल 75 मिलियन बर्ष रहा, इस युग में निर्मित चट्टानों में चुने की प्रधानता पाई जाती है तथा लावा का उद्गार प्रसिद्ध घटनाएं है। धरातल की कई हिस्से में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ। इस काल में ऐंजिओस्पर्म पौधे का विकास हुआ था इस काल में निर्मित चट्टानों की मोटाई 6400 फिट है 
4.NEOZOIC ERA / TERTIARY ERA- पृथ्वी की भूगर्भिक इतिहास में 70 मिलियन वर्ष पूर्व से 10 लाख वर्ष पूर्व तक का समय टर्सिरी युग के नाम से जाना जाता है- 
EOCENE महान हिमालय 
OLIGOCENE रौकी एंडीज 
MIOCENE लघु हिमालय, 25 मिलियन बर्ष पूर्व 
PLIOCENE चार पैरों वाला जीवो का विकास 
इस युग में अल्पाइन पर्वत निर्माणकारी घटना घटित हुई तथा विभिन्न समुद्रों तथा वृहद भूसन्नतियो (जियोसिन्क्लाइन्स) का मलवा वलित होकर पर्वतों में परिवर्तित भी हो गया। इस युग में पर्वत निर्माणकारी शक्तियां प्रारंभ से अंत तक क्रियाशील रही तथा हिमालय आल्प्स, रॉकी, एंडीज पर्वतमालाओं का विकास भी हुआ इसी युग में धरातल के विभिन्न भागों पर दरारी उद्भेदन के फलस्वरुप लावा का विस्तार हुआ । इस युग के चट्टानों में मछलियां तथा स्तनपाई जीवो के अवशेष की अधिकता पाई जाती है इस दिशा में भी संकेत करती है कि इसका अभी निर्माण किस समय किन परिस्थितियों में हुआ करेगा। 5.QUATERNARY ERA – पृथ्वी का नवीनतम युग है इसकी शुरुआत आज से 2लाख वर्ष पूर्व से मानी जाती है । इस युग में पृथ्वी का 30% हिस्से हिमाच्छादित हुए । मनुष्य वनस्पति एवं पशु पक्षियों का पूर्ण रूप से विकास हुआ । क्वार्टनरीयुग को पुनः दो युगांतर में बांटा गया जा सकता है- 
PLEISTOCENE - इस युग में वानरों का विकास हुआ यह हिम आवरण के लिए प्रसिद्ध है भूपटल के विस्तृत भूपटल पर हिम आवरण के कारण इसे महान हिमकाल भी कहते हैं पृथ्वी पर चार हिम युग आए धरातल पर अनेक हिमानीकृत स्थलाकृतियां बनी इसमें उत्तरी हिमालय में महान झीलें नॉर्वे के फियोर्ड तट, साइबेरिया के दलदल आदि प्रमुख हैं । जलवायु परिवर्तन से जीव जंतुओं का बड़े पैमाने पर स्थानांतरण हुआ। मानव प्रजातियों का विकास इसी युगांतर में हुआ। शिवालिक हिमालय की विकास हुआ। मानव का विकास क्रम जारी रहा शिकार हेतु पत्थर के औजार बनाए गए अपनी जन्म स्थली अफ्रीका महाद्वीप से यह यूरोप तथा एशिया तक पहुंच गए.। 
HOLOCENE – आज से लगभग 10000 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ होलोसीन युगांतर वर्तमान में चल रहा है यह 15000 वर्ष तक और रहेंगे। 
REFERENCE BOOK NAME- 
PHYSICAL GEOGRAPHY BY DR. MAMORIA. 
PHYSICAL GEOGRAPHY BY SEVENDRA SINGH. 
ADVANCED GEOGRAPHY OF INDIA BY DR. BANSHAL 
WORLD GEOGRAPHY 
INTERNET WEB 
ADVANCED GEOGRAPHY (NALANDA OPEN UNIVERSITY) 








लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी अध्याय 1 (ख ) वर्ग 10 के लिए (धर्म और सांप्रदायिकता की परिभाषा और विश्लेषण )

i'msonuamit

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

अध्याय 1 (ख )
खंड (क) के लिए क्लीक करे link01

धर्म और सांप्रदायिकता
यह मानना कि धर्म ही समुदाय या समुदाय का गठन करता है, तो यहीं से संप्रदाय को राजनीति से जोड़कर उसे सांप्रदायिकता की संज्ञा दी जाने लगती हैं। लेकिन वास्तविक रूप से संप्रदाय और धर्म का एक भाग है l  जैसे वैदिक धर्म अर्थात तथाकथित हिंदू धर्म में 3 संप्रदाय वैष्णव शैव तथा शाक्त संप्रदाय हैं तो इस्लाम में शिया और सुननी, बौद्ध धर्म मैं हीनयान और महायान ईसाइयों में कैथोलिक तथा प्रोस्टेट आदि। 
                                                धर्मों के अंदर इसी अंतर पर परस्पर के संघर्ष को संप्रदायिकता कहते हैं लेकिन राजनीतिज्ञों की भाषा में दो धर्मों के बीच टकराव को सांप्रदायिकता का नाम दिया जाता है l  यह अवधारणा अत्यंत गलत है जो देश में अस्थिरता पैदा करती है इसे रोकने का प्रयास होना चाहिए।

वास्तव में सांप्रदायिकता राजनीतिक दलों की स्वार्थ परक तथा अपने धर्म को श्रेष्ठ तथा दूसरे धर्म को ही नहीं समझने की भावना का विकास करती है इसका घृणित परिणाम सांप्रदायिक हिंसा है । भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष देश है। जहां राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है यह सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है। 

सांप्रदायिकता का सही अर्थ है अपने धर्म को अन्य धर्मों से ऊंचा मानना। अपने धार्मिक हितों के लिए अपने राजनीतिक हितों के लिए राष्ट्रीय हित का बलिदान कर देना भी संप्रदायिकता है संप्रदायिकता धर्म के नाम पर गिरना फैलाती है यह विष के समान है जो मानव को मानव से घृणा करना सिखाता है इस संकुचित मनोवृति के कारण एक धर्म के अनुयाई दूसरे धर्म के अनुयायियों अथवा एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के लोगों के खून के प्यासे हो जाते हैं इस प्रकार संप्रदायवाद एक संकीर्ण विचारधारा है जो एक विशेष समुदाय का अन्य समुदाय के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करने का निर्देश देती है। 

राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में खड़ी हो जाती है जब 
1. धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है 
2. राजनीतिक में धर्म धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशेष के विशिष्टता के लिए की जाती है 
3. राजनीति किसी धर्म विशेष के दावे का पक्ष पोषण करने लगती हैं 
4. किसी धर्म विशेष के अनुयाई दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं। 
हम यह भी कह सकते हैं की राजनीतिक में धर्म को इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है। 

भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा 
सांप्रदायिकता भारत की आधारभूत चुनौतियों में से एक है किंतु हमने अपने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को स्थान देकर इसे सिरे से नकारना कर दिया है संवैधानिक उपबंध ों में से निम्नलिखित महत्वपूर्ण है 
राष्ट्र  में किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित नहीं किया है भारत किसी भी धर्म को विशेष धर्म का दर्जा नहीं देता है। 
                                            संविधान भारत के हर नागरिक को यह छूट देता है कि वह किसी भी धर्म को अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार या अंगीकार कर सकता है धर्म के आधार पर किसी को भी उसके कोई अधिकार या अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता कोई भी स्वतंत्रता पूर्वक अपने धर्म का पालन शांतिपूर्ण ढंग से प्रचार प्रसार कर सकता है तथा इस उद्देश्य से शिक्षण संस्थानों को स्थापित कर संचालित कर सकता है। 

लैंगिक विभाजन और राजनीति 
जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी जानेवाली असमान प्राथमिकताओं से है। 

पुरुष और स्त्री के जैविक घर बनावट में लैंगिक विभिन्नता आती है इसका सही तात्पर्य पुरुष और स्त्री में अंतर है यद्यपि भारत में स्थानीय निकायों में स्त्रियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू हो चुकी है किंतु विधायक या सांसद में अपनी सदस्यता की मांग के लिए महिलाओं के संगठन प्रयासरत है और पुरुष प्रधान भारतीय समाज इसे मानने के लिए तैयार नहीं दिखता यद्यपि घर के कामों से लेकर कृषि कार्य तक में महिलाओं की भागीदारी कोई गम नहीं यह अब हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी हैं यहां तक कि अब यह सेना में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। 

भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति 
भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़कर 859 तो जरूर हो गई है किंतु यह अभी भी 11% से कम है विकसित राष्ट्रों की भी विधायिकाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या अपर्याप्त है ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत अमेरिका में 16.3% इटली में 16.1% आयरलैंड में 16.2% तथा फ्रांस में 13.9 प्रतिशत है भारत में अधिकांश महिला सांसदों की पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक रही है या कुछ मामलों में आपराधिक भी इस बात को प्रमाणित करती है कि सामान्य महिलाओं के लिए अभी भी विधायिका की दहलीज दूर है। 

विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा 
सांप्रदायिकता किसी भी धर्म समुदाय को वह अधिकार देती है जिससे वह अपने आप को प्रमुख राजनीतिक में बनाए रखना चाहते हैं कभी-कभी बहुसंख्यक धर्माराम भी धर्मावलंबी एक जुट होकर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने हेतु अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय को मटियामेट कर देने वाली नीतियां बना देते हैं या बनवा देते हैं श्रीलंका में सिंधियों के बहुसंख्यक धर्मवाद ने बहुसंख्यकवाद का रूप लेकर सिंहली भाषा को एकमात्र राज्य भाषा घोषित करवा डालना शिक्षा और नौकरी में सीनियर को प्राथमिकता दिलवा देना बहुत ही धर्म के संरक्षण हेतु कदम उठाना निश्चय ही अल्पसंख्यक को स्वतंत्रता घाट पहुंचाने वाला कदम था 

सांप्रदायिकता राजनीति गोलबंदी को पैदा करती है इसके लिए संप्रदाय के गुरुओं मुल्लाओं द्वारा पवित्र प्रतीकों का अनुचित उपयोग धर्म गुरुओं द्वारा भावनात्मक अपील आदि सांप्रदायिकता के अन्य रूप हैं कभी जामा मस्जिद के मौलाना बुखारी द्वारा किसी विशेष राजनीतिक दल संप्रदाय के लोगों को वोट के लिए अपील उनका एक बेहतर उदाहरण है 
                                                           संप्रदायिकता अपने भयानक रूप में तब राजनीतिक में उभरती है जब वह हिंसा दंगा और नरसंघार को जन्म देती है भारत में अपने विभाजन को भी एक सांप्रदायिकता के आधार पर एक कलंक पूर्ण विभाजन माना है। आजादी के बाद भी कई जगह दंगे हुए गुजरात का गोधरा कांड दिल्ली का सिख दंगा इसके ज्वलंत उदाहरण है। 
भारत में किस तरह जातिगत असमानताएं जारी है 
भारत के श्रम विभाजन के आधार पर जातिगत असमानताएं जारी है जैसा कि कुछ अन्य देशों में भी है भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा के आधार पर लगभग वंशानुगत ही हैं पैसा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वता चला जाता है इसी पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति का रुप ले लेती है या व्यवस्था जब अस्थाई हो जाती है तब वह श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कल आने लगती है वास्तव में ऐसे ही हम जाति के नाम से जाने लगते हैं खासकर शादी विवाह और अन्य अनिवार्य व्यवस्थाओं में यह स्पष्ट रूप से बिक जाता है इस प्रकार भारत में सदियों से जातिगत असमानताएं जारी है। 

अल्पसंख्यक कौन है 
चाय भाषा के आधार पर ही हो या संस्कृति के अल्पसंख्यक शब्द को भारतीय संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है देश की कुल जनसंख्या के आधे से भी कम जनसंख्या वाले समुदाय को अल्पसंख्यक कहते हैं इस संदर्भ में 1991 की जनगणना के अनुसार धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय भारत की कुल जनसंख्या का 17.0% है राज्य सरकार अल्पसंख्यकों की इस तरह राज्य स्तर पर क्षेत्रीय या स्थानीय अल्पसंख्यकों की बात भी उठाती है इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की अवधारणा राज्य स्तरीय अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है इसका अर्थ यह है कि यदि कोई समुदाय या वर्ग किसी अन्य विशेष में कुल मिलाकर बहुमत में हो तो वह भी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक हो सकते हैं तथा इसके विपरीत स्थिति भी हो सकती है। 

भारत की राजनीतिक पर लैंगिक धार्मिक संप्रदाय तथा जातीय विभेद के प्रभावों का वर्णन करें 
लैंगिक विभेद का अर्थ है समाज का लिंग महिला तथा पुरुष के आधार पर बंटवारा समाज में लगभग 48% स्त्रियां हैं प्रारंभ में उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे परंतु धीरे-धीरे उनकी दशा खराब होती चली गई लैंगिक विभेद के कारण आज विश्व भर में राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कम है अमेरिका में 20.2% यूरोप में 96.6 तथा एशिया के देशों का औसत मात्र 11.7 प्रतिशत है भारत में लोकसभा में सिर्फ 11% राज्यसभा में 9 पॉइंट 3% महिलाएं हैं भारत के राज्य विधानमंडलों में तो यह 4% ही हैं भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का वादा किया है परंतु यह विधेयक अभी संसद में लंबित है l 
                                        धार्मिक एवं सांप्रदायिक प्रभाव आधुनिक युग में धर्म और राजनीति का गहरा संबंध है धर्म के आड़ में राजनीति का घिनौना खेल खेला जा रहा है कुछ राजनीतिक दलों का गठन भी किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है धार्मिक आवंटन नहीं संप्रदायवाद का रूप ले लिया है सांप्रदायिकता के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था। 

जातीय विभेद का प्रभाव राजनीतिक में जाति का प्रभाव निम्नलिखित रुप से देखने को मिलता . 
1. राजनीतिक दल अपने अपने जाति आधारित बोर्ड बैंकों का ध्यान रखते हुए उम्मीदवारों का चयन करते हैं। 
2. सरकार बनाते समय भी सत्तारूढ़ दल अपने प्रांतीय राष्ट्र के जाति आधारित प्रतिनिधित्व का पूरा ख्याल रखते हैं 
3. राजनीतिक में जाति का प्रभाव के कारण ही पिछड़ी जाति के लोगों की राजनीति में रुचि बढ़ती जा रही है या उनका मानना है कि बिना सत्ता हासिल किए हुए उनका कल्याण संभव नहीं है। 
4. राजनीतिक दल भी चुनावों के समय जाति आधारित भावनाओं को उकसाने का प्रयास करते हैं। 
भ्रूण हत्या से आप क्या समझते हैं? 
वर्तमान में अत्याधुनिक उपकरणों से गर्भ में ही शिशु के लिंग की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है और पुत्री के जन्म होने की जानकारी होने पर गर्भ में ही उसकी हत्या कर दी जाती है इसे ही भ्रूण हत्या करते हैं। 

महिलाओं के सशक्तिकरण से आप क्या समझते हैं? 
महिलाएं आज राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी पिछड़ी हुई है नारियों के विकास के बिना समाज के विकास की बात करना असंभव है अतः महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागृत होना महिला सशक्तिकरण है। 

नोट:- सभी विद्यार्थियों से आग्रह है की इस क्लास नोट्स को अत्यंत ध्यानपूर्वक पढ़े। बहुत संभव है कि शब्दों में त्रुटी हो, हालाकि नोट्स को लिखते वक़्त हर संभव त्रुटि रहित रखने का प्रयास किया गया है। धन्यवाद्
 

तंतु से वस्त्र तक ( वर्ग 6 के लिए महत्वपूर्ण नोट्स )

Susmita Mishra


तंतु से वस्त्र तक



By - Pankaj kumar (Student)

भूमिका - हम रोज कपड़े पहनते हैं । कई तरह के कपड़ों का हम अलग अलग उपयोग करते हैं।हमारे कपड़ों में कई तरह की विशेषताएं और विविधताएं होती हैं । कुछ महीन, कुछ मोटे, कुछ रंगीन कुछ सफेद कुछ बेहद चमकीले और कुछ खुरदुरे वस्त्र होते हैं।
  • वस्त्र धागे की पतली लड़ी से मिलकर बनी होती हैं जिसे तंतु कहते हैं।
  • कुछ वस्त्र सूती, रेशमी जूट के तंतु पौधे और जंतुओं से प्राप्त होते हैं, इन्हें प्राकृतिक तंतु कहते हैं। 
  • कपास का सूत कपास से, रेशमी सूत्र रेशम के कीड़ों से और ऊन, ऊट, बकरी आदि से प्राप्त किया जाता है
  • इसके अलावा केले के पत्ते, तने बांस से भी तंतु प्राप्त किया जाता है।
  • हजारों वर्षों तक प्राकृतिक तत्वों से ही वस्त्र बनाए जाते थे । 
  • ऐसे रासायनिक पदार्थ जिसके स्रोत पौधे व जंतु नहीं है, से तंतु का निर्माण किया जा रहा है इन्हें मानव निर्मित तंतु कहते हैं । जैसे पॉलिस्टर, नायलॉन एक्रोलीक आदि।

साधारणतया कपास के पौधे वहां उगाए जाते हैं जहां की मिट्टी काली तथा जलवायु गर्म होती है। हमारे देश में कुछ राज्य हैं जहां कपास की खेती की जाती है जैसे महाराष्ट्र गुजरात कर्नाटक पश्चिमी मध्य प्रदेश पश्चिमी आंध्र प्रदेश आदि।
कपास के पौधे से रुई बनती है। कपास की फसल पक जाने पर कपास चुने जाने के लिए तैयार हो जाता है । कपास के फूल काफी विकसित हो जाने पर उजली उजली रुई की गोलक रूप में दिखाई देने लगते हैं जिसे का कपास गोलक कहते हैं।
  • साधारणतया पौधे से कपास को हाथों से चुना जाता है। इसके बाद बड़े-बड़े मशीन की सहायता से कपास को बिनौली से अलग किया जाता है। पुराने जमाने में इस क्रिया को कपास 'ओटाना' कहते हैं । पारंपरिक ढंग से कपास हाथों से ओटी जाती थी।
  • पटसन तंतु को पटसन के पौधे के तने से प्राप्त किया जाता है। भारत में इसकी खेती वर्षा ऋतु में की जाती है। भारत में प्रथम को प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल बिहार तथा असम में उगाया जाता है।
  • बिहार के कटिहार, मधेपुरा, सहरसा, खगड़िया, सुपौल तथा दरभंगा में जुट अधिक मात्रा में उगाया जाता है। जब पौधे में फूल आने लगते हैं तो उसे काट लेते हैं।कुछ दिन तक इस केतनो को पानी में डुबोकर रखा जाता है ताकि रेशों को अच्छी तरह अलग किया जा सके, फिर इसको पानी में पटक पटक कर धुलाई कर देते हैं।
  • वस्त्र बनाने से पहले इन सभी तंतुओं को धागे में परिवर्तित कर लिया जाता है। रेशों से धागा बनाने की प्रक्रिया को कताई कहते हैं। इस प्रक्रिया में रुई के एक पुंज से रेशे को खींच कर ऐठते हैं । ऐसा करने से रिश्ते आपस में गुथ जाते हैं और वह धागा बन जाता है।
  • कताई के लिए तकली का प्रयोग किया जाता है। हाथ से चलाने वाली कताई में उपयोग होने वाली एक अन्य युक्ति चरखा है। चरखी के उपयोग को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के एक पक्ष के रूप में लोकप्रियता प्रदान की थी। उन्होंने लोगों के हाथ से काते धागों से बनी वस्तुओं को पहनने तथा ब्रिटेन के मीलों में बने आयातित कपड़ों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया था। 
  • वस्त्रों की बुनाई करघा या तो हाथों से चलने वाले होते हैं अथवा मशीन से बिजली से चलने वाले होते हैं।
  • बंधाई में किसी एकल धागे का उपयोग वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। मौजे और बहुत से ऐसे वस्त्र बंधाई द्वारा बनाए जाते हैं बंधाई हाथों से तथा मशीनों द्वारा भी की जाती है।\
  • बुनाई तथा बंधाई का उपयोग अलग-अलग तरह के वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है। इन कपड़ों से पहनने के अलग-अलग वस्तु तैयार किए जाते हैंl
  • वस्त्रों के विषय के प्रमाणों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में लोग वृक्षों की छाल, बड़ी-बड़ी पत्तियों अथवा जंतुओं के चमड़े से अपने शरीर को ढकते थे।
  • कृषि में विकास के साथ-साथ समुदाय में रहना शुरू करने के बाद मानव ने पतली पतली टहनियों तथा घास को बुनकर चटाई या तथा टोकरी बनाना सीखा।
  • पेड़ों के पत्ते लताओं जंतुओं से प्राप्त ऊन अथवा बालों को आपस में ऐठेन देकर लंबी लड़ियां बनाई जाती हैं थी, इनको बुनकर वस्त्र तैयार किए जाते थे । 
  • पुराने जमाने में भारतवासी रुई से बने वस्त्र पहनते थे।परंतु क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि आज भी साड़ी, धोती, लूंगी, गमछा चादर, साल, दुपट्टा और पगड़ी का बिना सिले वस्त्र के रूप में उपयोग किया जाता है।
जिस प्रकार पूरे देश में भोजन में अत्यधिक विविधता देखने को मिलती है ठीक उसी प्रकार वस्त्र एवं पहनने की वस्तुओं में भी अत्यधिक विविधता पाई जाती है।
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